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जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन
करना, असत्य भाषण करना, कम-ज्यादा तोल-माप करना आदि तिर्यञ्च-आय बन्ध के कारण बताये गये हैं।४६
मनुष्यायु कर्मबन्ध के कारण-आरम्भवृत्ति और परिग्रहवृत्ति कम रखना तथा स्वभावतः अर्थात् बिना कुछ कहे-सुने मृदुता और सरलता का होना मनुष्य आयु के बन्धन के कारण हैं।
देवायु कर्मबन्ध के कारण- (१) सरागसंयम - हिंसा, असत्य, चोरी आदि महान दोषों से विरत होने के बाद भी कषायों के कुछ अंश का शेष रहना सरागसंयम है। (२) संयमासंयम-हिंसा विरति आदि व्रतों का अल्पांश में धारण करना संयमासंयम है। (३) अकाम निर्जरा-पराधीनता के कारण अहितकर प्रवृत्ति अथवा आहार आदि का त्याग अकाम निर्जरा है। (४) बाल तप-बालभाव से अर्थात् बिना विवेक के अग्नि-प्रवेश, जलप्रवेश, पर्वत-प्रपात, विष-भक्षण, अनशनादि देहदमन क्रियायें करना बालतप है। नाम कर्म
जिससे विशिष्ट गति, जाति आदि की प्राप्ति हो वह नाम कर्म है। जिस प्रकार चित्रकार विभिन्न रंगों से अनेक प्रकार के चित्र बनाता है, उसी प्रकार नामकर्म विभिन्न परमाणुओं से जगत के प्राणियों के शरीर की रचना करता है। ९ नाम कर्म के दो प्रकार हैं- शुभ नाम कर्म और अशुभ नाम कर्म ।
शुभ नाम कर्म के बन्ध के कारण- (i) मन, वचन और काय की सरलता तथा (ii) सम्पादन यानी दो व्यक्तियों के भेद को मिटाकर एकता करा देना अथवा गलत रास्ते पर जानेवाले को सही रास्ते लगा देना शुभ नाम कर्मबन्ध का कारण है।५०
अशुभ नाम कर्म के बन्ध के कारण-(i) योगवक्रता यानी मन, वचन और काय की कुटिलता तथा (ii) विसंवादन अर्थात् अन्यथा प्रवृत्ति करना अथवा दो स्नेहियों के बीच भेद पैदा करना अशुभ नाम कर्मबन्ध का कारण है।५१
शुभनाम कर्म से प्राप्त फल- नवपदार्थ ज्ञानसार में शुभ नामकर्म से प्राप्त चौदह प्रकार के व्यक्तित्व-विपाक बताये गये हैं - (i) अधिकारपूर्ण प्रभावक वाणी ii) सुन्दर शरीर, (iii) शरीर से नि:सृत होनेवाले मलों में भी सुगंधि, (iv) जैवीय रसों की समुचितता (v) त्वचा का सुकोमल होना, (vi) अचपल योग्य गति, (vii) अंगों का समुचित स्थान पर होना, (viii) लावण्य, (ix) यश कीर्ति का प्रसाद, (x) योग्य शारीरिक शक्ति, (xi) लोगों को रुचिकर लगे ऐसा स्वर, (xii) कान्त स्वर, (xiii)
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