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बन्धन एवं मोक्ष
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है- “भिक्षुओं ! ध्यान दो, मैंने अमृत पाया है। मैं उसका उपदेश तुम्हें करता हूँ। मैं अब अमृत की दुंदुभि बजाऊँगा । अब अमृत के द्वार खुल गये हैं।
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निर्वाण
निर्वाण शब्द का अर्थ होता है "बुझा हुआ, " अतः दुःखों का बुझ जाना ही निर्वाण है। जन्म का कारण तृष्णा है। तृष्णा के कारण ही मनुष्य में राग, द्वेष और मोह उत्पन्न होता है। वह राग-द्वेष से युक्त होकर कर्म करता जाता है और जन्म लेता जाता है। रागद्वेष के निरोध से जन्ममरण का स्रोत बन्द हो जाता है। राग-द्वेष का रुक जाना यानी भव का निरोध हो जाना। भव का निरोध ही निर्वाण कहलाता है। १०१ भगवान् बुद्ध ने कहा हैतीन ही अकुशल मूल हैं। इनके संयोग से मनुष्य का चित्त कभी सुख और शान्ति नहीं पाता। अतः राग, द्वेष और मोह से वियोग या विमुक्ति ही निर्वाण है । १०२ निर्वाण की उपमा बुझे हुए दीपक से दी गयी है। अभिप्राय यह है कि दीपक के बुझ जाने के समान ही वेदनाओं का सदा के लिए समाप्त हो जाना निर्वाण है । भगवान् बुद्ध ने कहा है- भिक्षुओं! जिस प्रकार तेल और बत्ती के रहने पर दीपक जलता है तथा तेल और बत्ती के समाप्त हो जाने से दीपक बुझ जाता है उसी प्रकार तृष्णा के क्षय से जीवन-मरण की क्रिया भी समाप्त हो जाती है, वेदनायें शान्त हो जाती हैं । १०३ निर्वाण प्राप्त कर मनुष्य सदा के लिए शान्त हो जाता है, उसका पुराना कर्म नष्ट हो जाता है, नवीन कर्म की उत्पत्ति नहीं होती, पुनर्जन्म के बीज नष्ट हो जाते हैं, कोई इच्छा नहीं रहती । पुनर्जन्म की प्रक्रिया के नष्ट होने के बाद व्यक्ति को पता नहीं चलता कि वह किस दिशा में विलीन हो जाता है। इसको स्पष्ट करते हुए भगवान् बुद्ध ने कहा है - जिस प्रकार लोहे के घन की चोट पड़ने से जो चिनगारियाँ उठती हैं, वे शीघ्र ही बुझ जाती हैं, पता नहीं चलता कि वे कहाँ और किस दिशा में गयीं, ठीक उसी प्रकार तृष्णा से मुक्त या निर्वाण प्राप्त व्यक्ति की गति का कोई पता नहीं चलता । १०४ जैसा कि आचार्य अश्वघोष ने कहा है- बुझा हुआ दीपक न तो पृथ्वी में जाता है, न अन्तरिक्ष में, न किसी दिशा में न किसी विदिशा में, प्रत्युत् स्नेह (तेल) के क्षय होने से वह केवल शान्ति को प्राप्त कर लेता है । उसी प्रकार ज्ञानी पुरुष न तो कहीं जाता है, न पृथ्वी पर, न अन्तरिक्ष में, न किसी दिशा में, न विदिशा में। केवल क्लेश के क्षय हो जाने पर शान्ति प्राप्त कर लेता है । "
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निर्वाण धर्मों की धर्मता है, निर्वाण सब धर्मों में व्याप्त है और सब धर्मों से परे है, वह निरपेक्ष परमतत्त्व है । भगवान् बुद्ध ने निर्वाण को अजात, अमृत, अकुतोभय, परमसुख आदि विशेषणों से विभूषित किया है। १०६ उन्होंने कहा है- “भिक्षुओं ! यह अजात, अमृत, अकृत, असंस्कृत तत्त्व है, इसीलिए यह जात, नश्वर, कृत और संस्कृत
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