________________
जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन
हैं। जैन परम्परा में विक्षिप्त, यातायात, श्लिष्ट और सुलीन मन तथा बौद्ध परम्परा में कामावचर, रूपावचर, अरूपावचर और लोकोत्तर चित्त का उल्लेख है । यद्यपि दोनों परम्पराओं में मन या चित्त की अवस्थाओं को देखने से उनमें भिन्नताएं दृष्टिगोचर होती हैं, लेकिन उनके मूलभूत दृष्टिकोण में कोई अन्तर नहीं है। इन चित्तवृत्तियों या वासनाओं का विलयन ही योग परम्परा का मुख्य उद्देश्य रहा है और जहाँ चित्तवृत्तियों का विलयन हो जाता है, वहीं साधना अपनी पूर्णता को प्राप्त करती है और साधना की यही पूर्णता ध्यान कहलाती है। चेतना का किसी एक विषय या बिन्दु पर केन्द्रित होना ही ध्यान है । इस प्रकार ध्यान और योग दोनों एक-दूसरे के पर्यायवाची बन जाते हैं। इसी प्रकार ध्यान और समाधि भी समानार्थक ही हैं। चित्त की वृत्तियों का उद्वेलित होना असमाधि है तथा उनकी इस उद्विग्नता का समाप्त हो जाना समाधि है। ध्यान चित्त की वह निष्प्रकम्प अवस्था है जिसमें आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप का साक्षात्कार करती है। ध्यान चित्त की समत्वपूर्ण स्थिति है, लेकिन ऐसा नहीं है कि समाधि में चित्त की समत्वपूर्ण स्थिति नहीं होती बल्कि ध्यान और समाधि दोनों में ही समत्वपूर्ण स्थिति आवश्यक है। इस प्रकार ध्यान और समाधि समानार्थक प्रतीत होते हैं। यदि दोनों में अन्तर है तो कार्य-कारण भाव या साध्य - साधना की दृष्टि से । ध्यान समाधि का साधन है तो समाधि साध्य | ध्यान जब सिद्ध होता है तब वह समाधि का रूप ग्रहण कर लेता है। इस प्रकार साधन से साध्य की उपलब्धि होती है और यही उपलब्धि योग के नाम से जानी जाती है। यदि इसे हम दूसरी भाषा में कहना चाहें तो इस प्रकार कह सकते हैं कि जब चित्तवृत्तियों की चंचलता समाप्त हो जाती है, चित्त शान्त और निष्प्रकम्प हो जाता है तो वह ध्यान कहलाता है, वही समाधि के नाम से जाना जाता है और उसे ही योग कहते हैं ।
३१६
योग-साधना एक प्रक्रिया है । अत: इस साधना में प्रवृत्त होने से पूर्व साधक को आत्मा, योग, साधना आदि का आध्यात्मिक एवं तात्त्विक ज्ञान होना आवश्यक है, क्योंकि किसी भी क्रिया को करने के लिए सबसे पहले उसके सम्बन्ध में ज्ञान का होना आवश्यक है। ज्ञान के अभाव में कोई भी क्रिया या कोई भी साधना, भले ही वह कितनी ही उत्कृष्ट क्यों न हो लक्ष्य को प्राप्त करने में सहायक नहीं हो सकती। इसलिए साधना प्रारम्भ करने के पूर्व ज्ञान का होना आवश्यक है और ज्ञान के अनुरूप आचरण ही योग कहलाता है। इसी प्रकार जिसमें योग या एकाग्रता का अभाव है वह ज्ञानी नहीं । अतः साधना के लिए ज्ञान आवश्यक है तथा ज्ञान के विकास के लिए साधना । ज्ञान और योग की संयुक्त साधना से ही साध्य की सिद्धि होती है। लेकिन जहाँ तक साध्य की सिद्धि की बात है तो सर्वप्रथम साधक को यह जानना आवश्यक है कि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org