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बन्धन एवं मोक्ष
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(२३) जो आचार्य, उपाध्याय एवं गुरु का अविनय करता है। (२४) जो तपस्वी न होते हुए भी अपने-आप को तपस्वी कहता है। (२५) जो अस्वस्थ आचार्य आदि की सेवा नहीं करता । (२६) जो आचार्य आदि कुशास्त्र का प्रयोजन करते हैं। (२७) जो आचार्य आदि अपनी प्रशंसा के लिए मंत्रादि का प्रयोग करते हैं। (२८) जो इहलोक और परलोक में भोगोपभोग पाने की अभिलाषा करते हैं। (२९) जो देवताओं की निन्दा करते हैं या दूसरों से करवाते हैं।
(३०) जो असर्वज्ञ होते हुए भी अपने आपको सर्वज्ञ कहते हैं। आयु कर्म
___नारक, देव, मनुष्य और तिर्यश्च आदि शरीरों में किसी निश्चित काल पर्यन्त तक जीव-द्रव्य को रोकनेवाला आयुकर्म है । अर्थात् जिससे भव का धारण हो उसे आयु कर्म कहते हैं। आयु कर्म के अस्तित्व से प्राणी जीता है और क्षय से मरता है। आयु दो प्रकार की होती है- अपवर्तनीय और अनपवर्तनीय। बाह्य निमित्तों से जो आयु कम हो जाती है, अर्थात् नियत समय से पूर्व समाप्त हो जाती है उसे अपवर्तनीय आयु कहते हैं, इसे ही अकालमृत्यु कहा जाता है। जो आयु नियत समय पर समाप्त हो उसे अनपवर्तनीय आयु कहते हैं।
आयु कर्म के चार प्रकार हैं- (१) नरकायु, (२) तीर्यश्चायु (३) मनुष्यायु और (४) देवायु । तत्त्वार्थसूत्र में इन चारों आयु कर्मबन्ध के कारण बताये गये हैं जो इस प्रकार हैं
नारकीय जीवन बन्ध के कारण- प्राणियों को दुःख पहुँचे ऐसी कषायपूर्वक प्रवृत्ति करना, यह वस्तु मेरी है और मैं इसका स्वामी हूँ- ऐसा संकल्प करना, हिंसादि क्रूर कार्यों में सतत् प्रवृत्ति का होना तथा भोगों में अत्यन्त आसक्त रहना आदि नरकायु बन्ध के कारण हैं।
तिर्यञ्चायु कर्मबन्ध के कारण ५-माया अर्थात् छल प्रपंच करना अथवा कुटिलभाव रखना। धर्मतत्त्व के उपदेश में धर्म के नाम से मिथ्या बातों को मिलाकर उनका स्वार्थ-बद्धि से प्रचार करना तथा जीवन को शील से दूर रखना आदि सब माया है। यही माया तिर्यञ्च-आयु के बन्ध का कारण है। कर्मग्रन्थ में कपट करना, रहस्यपूर्ण कपट
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