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जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन तप्त हो जाते हैं उसे तप कहते हैं। तप का विस्तृत वर्णन द्वितीय अध्याय में किया जा चुका है, अत: वहाँ देखें।
त्याग-सामान्य रूप से त्याग का अर्थ होता है-- छोड़ना । अप्राप्तभोगों की इच्छा नहीं करना और प्राप्त भोगों से विमुख होना ही त्याग है। नैतिक जीवन में त्याग आवश्यक माना गया है। बिना त्याग के नैतिक रहना संभव नहीं है। साधु जीवन और गृहस्थ जीवन दोनों के लिए त्याग धर्म आवश्यक बताया गया है। साधु जीवन में जो कुछ भी उपलब्ध है या नियमानुसार ग्राह्य है, उनमें से कुछ को नित्य छोड़ते रहना या त्याग करते रहना जरूरी है। इसी प्रकार गृहस्थ को न केवल अपनी वासनाओं और भोगों की इच्छा का त्याग करना होता है, वरन् अपनी सम्पत्ति का दान एवं परिग्रह के रूप में त्याग करते रहना आवश्यक बताया गया है।८२
__ आकिञ्चन्य-किसी भी वस्तु में ममत्वबुद्धि न रखना आकिञ्चन्य है।८२ जगत में जितने भी अनाचार, दुराचार, हिंसा, झूठ, चोरी आदि प्रवृत्तियाँ होती हैं उनमें से अधिकतर का मूलकारण संग्रहप्रवृत्ति होती है और इसी संग्रहप्रवृत्ति से बचना आकिञ्चन्यता का मुख्य उद्देश्य है।
ब्रह्मचर्य-विद्वानों ने निज आत्मा में लीनता को ब्रह्मचर्य कहा है। परन्तु लौकिक जीवन में ब्रह्मचर्य से तात्पर्य कामभोग के त्याग से लिया जाता है। पं० सुखलाल संघवी के अनुसार त्रुटियों से दूर रहने के लिए ज्ञानादि सद्गुणों का अभ्यास करना एवं गुरु की अधीनता के सेवन के लिए ब्रह्म (गुरुकुल) में चर्य (बसना) ब्रह्मचर्य है। यहाँ पंडितजी ने ब्रह्म का अर्थ गुरुकुल ग्रहण किया है। गृहस्थ और उपासक दोनों के लिए ब्रह्मचर्य धर्म आवश्यक बताया गया है। दोनों को अपनी-अपनी मर्यादा के अनुकूल और निष्ठा से ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। चार भावनाएँ
मैत्री, प्रमोद आदि चार भावनाएँ पंचव्रतों की प्राप्ति में उपकारक का कार्य करती हैं। भगवान् महावीर ने कहा है कि व्यक्ति को प्राणीमात्र के प्रति मैत्रीवृत्ति, गुणीजनों के प्रति प्रमोदवृत्ति रखनी चाहिए।८५ ।
मैत्री-मैत्री का विषय प्राणीमात्र है। मैत्री का अर्थ होता है— दूसरे में अपनेपन की बुद्धि । इसीलिए अपने समान ही दूसरे को दु:खी न करने की वृत्ति अथवा भावना रखना मैत्रीवृत्ति है।८६
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