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जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन
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होता है उसी प्रकार संसार रूपी वृक्ष को समाप्त करने के लिए उसके मूल का उच्छेद करना आवश्यक है।७८ वृत्तिसंक्षय से साधक समस्त कर्मों का अवरोध करता हुआ केवलज्ञान प्राप्त कर शैलेशी अवस्था में पहुँचता है, जहाँ सभी प्रकार की बाधाओं से अतीत सदानन्दमयी मोक्षावस्था को प्राप्त करता है । ७९
उपर्युक्त पाँचों भूमियाँ चौदह गुणस्थान में समाहित हैं। पूर्व सेवा से लेकर समता तक जो धार्मिक अनुष्ठान साधक करते हैं, वे सब धर्म - व्यापार होने के कारण योग के उपाय मात्र हैं।'° अध्यात्म, भावना, अपुनर्बन्धक एवं सम्यक् - दृष्टि आदि व्यवहार नय से तात्त्विक हैं और देशविरत एवं सर्वविरत निश्चय नय से तात्त्विक हैं। अप्रमत्त, सर्वविरत आदि गुणस्थानों में ध्यान तथा समता उत्तरोत्तर तात्त्विक रूप से होती हैं तथा वृत्तिसंक्षय तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में हुआ माना जाता है । ८१
इस प्रकार आध्यात्मिक विकास की भूमियों में मुख्यतः चौदह गुणस्थान ही प्रमुख हैं, जिन्हें विभिन्न आचार्यों ने अपने-अपने ढंग से प्रस्तुत किया है। आचार्य हरिभद्र द्वारा निरूपित आध्यात्मिक विकास की आठ तथा पाँच भूमियों का समावेश चौदह गुणस्थान में हो जाता है। चौथे से बारहवें गुणस्थान तक सम्प्रज्ञात योग और तेरहवें से चौदहवें गुणस्थान में असम्प्रज्ञात योग की अवस्था होती है।
बौद्ध परम्परा में आध्यात्मिक विकास
जैन परम्परा की भाँति बौद्ध परम्परा में भी आध्यात्मिक विकास की भूमियों की चर्चा मिलती है। साधक जितना अधिक आध्यात्मिक विकास की सीमा को स्पर्श करता है, उतना ही अधिक निर्वाण की भूमिका के समीप होता है। आध्यात्मिक विकास की प्राप्ति के क्रम में वह निरंतर बुद्ध द्वारा बताए गये मार्ग का अनुसरण करता रहता है और अन्त में निर्वाण को प्राप्त कर लेता है। जैन परम्परा में आध्यात्मिक विकास की १४ भूमियाँ स्वीकार की गयी हैं, लेकिन आध्यात्मिक विकास को लेकर बौद्ध परम्परा में मत वैभिन्न्र्य देखने को मिलता है। किसी ने चार भूमियों को स्वीकार किया है तो किसी ने दस। हीनयान सम्प्रदाय जो वैयक्तिक निर्वाण अथवा अर्हत् पद की प्राप्ति पर बल देता है, ने चार भूमियों को ही मान्यता दी है; वही महायान सम्प्रदाय जो बुद्धत्व की प्राप्ति के द्वारा लोकमंगल की साधना पर बल देता है, ने आध्यात्मिक विकास की दस भूमियों को किया है।
यद्यपि आध्यात्मिक विकास के साधन के रूप में श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि और प्रज्ञा को माना गया है, जो आध्यात्मिक विकास की पाँच इन्द्रियाँ या जीवनी शक्तियाँ कहलाती हैं। मिलिन्दपञ्ह में कहा गया है कि चित्त के सम्प्रसाद का नाम ही श्रद्धा है । " २
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