Book Title: Jain evam Bauddh Yog
Author(s): Sudha Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 282
________________ २६८ जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन कलाप एवं व्यवहार की निवृत्ति हो जाती है, इस सत्य का ज्ञान हो जाता है। १३३ जब भाविबोधिसत्व को धर्मसमूह का यथार्थ स्वरूप उपलब्ध हो जाता है तब वह उन सबों की उत्पत्ति एवं विनाश के सम्बन्ध में अधिकतर मन का प्रणिधान करता है। उसका मन मैत्री एवं करुणा से परिपूर्ण हो जाता है। इस भूमि में अन्य पारमिताओं की अपेक्षा प्रज्ञापारमिता की प्रधानता रहती है तथा साधक प्रज्ञा-पारमिता का ही विशेष लाभ करता है। दूरङ्गमा ___ अभिमुखी भूमि का अतिक्रमण करके साधक इस भूमि में प्रवेश करता है। इस अवस्था में साधक की साधना पूर्ण हो जाती है। वह निर्वाण प्राप्ति के सर्वथा योग्य हो जाता है, किन्तु निर्वाण की प्राप्ति से अभी दूर रहता है। साधक का मन आदर्श-विशुद्धि का लाभ करता है। साथ ही वह अनुभव करता है कि सभी वस्तुएँ निरात्म और सत्ताशून्य हैं, जीव या पुद्गल कोई भी वस्तु नहीं है। लेकिन वह चार प्रकार के ब्रह्मविहार के कर्म का परित्याग नहीं करता। वे चार कर्म निम्न हैं- १. मैत्री, २. करुणा, ३. मुदिता और ४. उपेक्षा।१३४ इस भूमि की विशेषता यह है कि इसमें साधक दश प्रकार की पारमिता१३५ का अनुष्ठान, चार प्रकार की संग्रह-वस्तु१३६ का निष्पादन, चार प्रकार के अधिष्ठानों की परिपूर्ति१३७ तथा सैंतीस प्रकार के बोधिलाभ१३ का निष्पादन करता है। इसमें अन्य पारमिताओं की अपेक्षा उपाय कौशल पारमिता की प्रधानता रहती है। अचला अचला अर्थात् इस भूमि में आरूढ़ होने के पश्चात् साधक की परावृत्ति होने की संभावना नहीं रहती है। विचार एवं विषय ही चित्त की चंचलता के कारण होते हैं, अत: इस भूमि में उनका सर्वथा अभाव होता है। इससे पूर्व की सात भूमियों में साधक प्रयास के द्वारा प्रवेश करता था, लेकिन इस भूमि में उसका सभी कार्य स्वत: ही सम्पन्न हो जाता है। इस भूमि का लाभ करने से पूर्व भाविबोधिसत्व का ही शरीर रहता है १३९ और उसी के द्वारा वह बोधिचर्या का अनुष्ठान करता है, लेकिन इस भूमि में वह शरीर को असंख्य कर लेता है जिसके फलस्वरूप वह बोधिसत्वचर्या नामक बल के लाभ करने में समर्थ होता है। इस भूमि में भाविबोधिसत्व के सभी प्रकार की आध्यात्मिक-समुन्नति की सीमा नहीं रहती। सर्वज्ञता का आविर्भाव होने के कारण वह सभी लोगों को जानने में समर्थ हो जाता है। इस भूमि का लाभ करने पर भी बोधिसत्व निर्वाण में प्रवेश नहीं कर पाता, क्योंकि निर्वाण में प्रवेश करने पर सभी प्राणियों के उद्धार करने का जो बोधिसत्वों का प्रयास होता है, वह समाप्त हो जाता है। इस भूमि की विशेषता यह है कि इसमें दश पारिमिताओं में प्रणिधान पारमिता की प्रधानता रहती है। १४० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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