Book Title: Jain evam Bauddh Yog
Author(s): Sudha Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 302
________________ जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन ८. प्रचलाप्रचला - चलते-फिरते आनेवाली निद्रा । ९. स्त्यानगृद्धि - जिस निद्रा में प्राणी बड़े-बड़े बल साध्य कार्य कर डालता है। वेदनीय कर्म २८८ जिससे सुख एवं दुःख का अनुभव हो वह वेदनीय कर्म है। इसके दो प्रकार हैंअसातावेदनीय और सातावेदनीय । दुःखरूप अनुभव का कारण असातावेदनीय कर्म है तथा सुखरूप अनुभव का कारण सातावेदनीय कर्म है। असातावेदनीय कर्मबन्ध के कारण ३४ दुःख, शोक, ताप, आक्रन्दन, वध और परिवेदन आदि असातावेदनीय कर्मबन्ध के कारण हैं। नवपदार्थ ज्ञानसार के अनुसार असातावेदनीय कर्म के बारह कारण हैं (१) किसी भी प्राणी को दुःख देना, (२) चिन्तित बनाना (३) शोकाकुल बनाना, (४) रुलाना, (५) मारना और (६) प्रताड़ित करना आदि। इन छः क्रियाओं की मंदता और तीव्रता के आधार पर इनके बारह प्रकार हो जाते हैं । ३५ सातावेदनीय कर्मबन्ध के कारण २६ असातावेदनीय की भाँति इसके भी छ: कारण बताये गये हैं- अनुकम्पा, व्रत्यनुकम्पा, दान, सरागसंयमादियोग, क्षान्ति और शौच । नवपदार्थ ज्ञानसार७ में सातावेदनीय कर्मबन्ध के उपर्युक्त कारणों से कुछ अलग हटकर कारण बताये गये है। (१) पृथ्वी, जल आदि के जीवों पर अनुकम्पा करना। (२) वनस्पति, वृक्ष, लतादि पर अनुकम्पा करना । (३) द्वीन्द्रिय आदि प्राणियों पर दया करना । (४) पञ्चेन्द्रिय पशुओं एवं मनुष्यों पर अनुकम्पा करना, (५) किसी को भी किसी प्रकार का दुःख न देना । (६) किसी भी प्राणी को चिन्ता एवं भय उत्पन्न हो ऐसा कार्य न करना। (७) किसी भी प्राणी को शोकाकुल नहीं बनाना । (८) किसी भी प्राणी को नहीं रुलाना । ( ९ ) किसी भी प्राणी को नहीं मारना । (१०) किसी भी प्राणी को प्रताड़ित नहीं करना । सातावेदनीय कर्म में शुभाचरण के कारण निम्न सुखद संवेद की प्राप्ति होती है(१) कर्णप्रिय सुखद स्वर सुनने को मिलते हैं । (२) मन के अनुरूप सुन्दर रूप देखने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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