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आध्यात्मिक विकास की भूमियाँ
१. प्रत्येक देश में और सब तरह से बुद्ध की पूजा करना।१०३ २. सभी बुद्धों के द्वारा कहे गये सद्धर्मों का रक्षण करना।१०४ ३. तुषित भवन में अवस्थान से महापरिनिर्वाणपर्यन्त बुद्ध ने जिन कार्यों का
अनुष्ठान किया उनका अनुष्ठान कर निर्वाणाभिमुख होना।१०५ ४. सभी भूमियों का परिशोधन करना, जिससे चित्तोत्पाद हो सके।१०६ ५. सभी प्राणियों का आध्यात्मिक-परिपाक सम्पादन करना,जिससे बुद्धों के
द्वारा निर्दिष्ट धर्म में प्रवेश लाभ कर सके और सर्वज्ञ-ज्ञान में प्रतिष्ठान
प्राप्त करे।१०७ ६. सभी लोक धातुओं के प्रकार भेद की अवगति कराना।१०८ ७. सभी बुद्धक्षेत्रों का परिशोधन करना।१०९ ८. महायान में प्रवेश करना।११० ९. सभी बोधिसत्वचर्या के अनुरूप अनुष्ठान करना एवं सभी चेष्टाएँ अव्यर्थ
करना।१११
१०. अभिसम्बोधिमहाज्ञान एवं अभिज्ञा निष्पादन करना।११२२ विमला
साधक का किसी तरह के मल से सम्बन्ध का न होना विमला कहलाता है। इस भूमि में अवस्थित भावी बोधिसत्व के सभी नीति एवं शील की अभ्युन्नति होती है। वे दस प्रकार के कुशल कर्मपथ के द्वारा सम्पन्न होते हैं। वे दश कुशल कर्मपथर १३ निम्नलिखित हैं- १. प्राणातिपात से प्रतिविरति, २. चौर्य से प्रतिविरति, ३. काम एवं मिथ्याचार से प्रतिविरति, ४. अमृतवचन से प्रतिविरति, ५. पिशुनवचन से प्रतिविरति, ६. कर्कशवचन से प्रतिविरति, ७. असम्बद्ध अथवा निरर्थक प्रलाप से प्रतिविरति, ८. लोभ से प्रतिविरति, ९. ईर्ष्या त्याग और १०. कुदृष्टि त्याग। इन दस कर्मपथ में से क्रमश: प्रथम तीन शरीर, चार वचन तथा तीन मन से सम्बन्धित हैं। साधक इन दशविध कुशल कर्मपथ का विशेष रूप से अनुसरण करते हुए अपने चित्ताशय की ओर भी क्रमिक अभ्युन्नति सम्पादित करता है। ११४ इस भूमि में अवस्थान करनेवाले साधक (बोधिसत्व) ऐसा अनुभव करते हैं कि उनकी दृष्टि में आभासित असंख्य बुद्ध महात्याग एवं शील
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