Book Title: Jain evam Bauddh Yog
Author(s): Sudha Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 275
________________ आध्यात्मिक विकास की भूमियाँ २६१ श्रद्धा में प्रतिष्ठित होकर साधक वीर्यारम्भ करता है। श्रद्धा से ही वीर्य की उत्पत्ति होती है। वीर्यारम्भ करनेवाले की स्मृति ठहरती है। जिसकी स्मृति ठहरती है, उसी का चित्त समाधिमग्न होता है और चित्त की समाधि से ही मनुष्य प्रज्ञा को प्राप्त करता है। इस प्रकार श्रद्धा की अन्तिम परिणति प्रज्ञा होती है। हीनयान सम्प्रदाय में सम्यक् - दृष्टि सम्पन्न निर्वाण मार्ग पर आरूढ़ साधक अर्हत् अवस्था (सर्वोच्च पद ) को प्राप्त करने तक निम्न चार भूमियों की साधना करता है - १. स्रोतापन भूमि, २. सकृदागामी भूमि, ३. अनागामी भूमि, ४. अर्हत् भूमि । स्त्रोतापन्नभूमि ३ ८५ दीघनिकाय में कहा गया है कि इस भूमि में साधक तीन संयोजनों के क्षय से फिर न पतित होनेवाला, नियत सम्बोधी की ओर जानेवाला स्रोतापन्न कहलाता है। * पं. बलदेव उपाध्याय ने "स्रोतापन्न" शब्द का अर्थ 'धारा' में पड़नेवाला किया है। जब साधक का चित्त प्रपञ्च से एकदम हटकर निर्वाण के मार्ग पर आरूढ़ हो जाता है, जहाँ से गिरने की संभावना तनिक भी नहीं रहती तब उसे स्रोतापन्न कहते हैं। स्रोतापत्रभूमि की प्रथम अवस्था को गोत्रभू कहा जाता है। इसी प्रकार डॉ० सागरमल जैन ने स्रोतापन्न भूमि को स्पष्ट करते हुए कहा है - साधक जब बुद्ध कथित मार्ग को भली-भाँति जानकर शास्त्र का अच्छी तरह मनन- चिन्तन करते हुए तीन संयोजनो का क्षय कर देता है, तब सत्काय-दृष्टि अर्थात् शरीर को आत्मा मानकर उसके प्रति ममत्व या मेरापन का भाव रखता है, विचिकित्सा अर्थात् सन्देहात्मकता तथा शीलव्रत परामर्श अर्थात् व्रतादि में आसक्ति आदि अवस्थाओं को प्राप्त करता है। तात्पर्य यह है कि जब साधक दार्शनिक मिथ्यादृष्टिकोण (सत्काय दृष्टिकोण) एवं कर्मकाण्डात्मक मिथ्यादृष्टिकोण ( शीलव्रत परामर्श) का त्याग कर सभी प्रकार के संशयों (विचिकित्सा) की अवस्था को पार कर जाता है, तब इस स्रोतापन्नभूमि पर प्रतिष्ठित होता है। इस अवस्था पर प्रतिष्ठित साधक विचार एवं आचार दोनों से शुद्ध होता है। जो भी साधक इस स्रोतापन्न अवस्था को प्राप्त कर लेता है वह अधिक से अधिक सात जन्मों में निर्वाण लाभ कर लेता है। इस भूमि में दार्शनिक एवं कर्मकाण्डात्मक मिथ्यादृष्टिकोणों एवं संदेहशीलता के समाप्त हो जाने के कारण इस भूमि से पतन की संभावना नहीं रहती है और साधक निर्वाण की दिशा में अभिमुख हो आध्यात्मिक दिशा में प्रगति करता है । स्रोतापन्नभूमि के साधक बुद्धानुस्मृति, धर्मानुस्मृति, संघानुस्मृति, शील एवं समाधि आदि गुणों से युक्त होता है। ८६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344