________________
जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन
आध्यात्मिक विकास की चौदह भूमियों में प्रथम सात भूमियों तक आत्मा पर अनात्मा का आधिपत्य रहता है और अन्तिम सात भूमियों में अनात्मा पर आत्मा का अधिशासन रहता है। प्रथम सात गुणस्थानों में आत्मा और अनात्मा की अवस्थाओं को एक उदाहरण रूप में प्रस्तुत करते हुए डॉ० सागरमल जैन ने कुछ इस तरह कहा है"ऐसे किसी उपनिवेश की कल्पना कीजिए, जिस पर किसी विदेशी जाति ने अनादिकाल से आधिपत्य कर रखा हो और वहाँ की जनता को गुलाम बना लिया हो, यही प्रथम गुणस्थान है। उस पराधीतना की अवस्था में ही शासक वर्ग द्वारा प्रदत्त सुविधाओं का लाभ उठाकर वहीं की जनता में स्वतंत्रता की चेतना का उदय हो जाता है- यही चतुर्थ गुणस्थान है। बाद में वह जनता कुछ अधिकारों की माँग प्रस्तुत करती है और कुछ प्रयासों और परिस्थितियों के आधार पर उनकी यह माँग स्वीकृत होती है- यही पाँचवाँ गुणस्थान है। इसमें सफलता प्राप्त कर जनता अपने हितों की कल्पना के सक्रिय होने पर औपनिवेशिक स्वराज्य की प्राप्ति का प्रयास करती है और संयोग उसके अनुकूल होने से उनकी वह माँग भी स्वीकृत हो जाती है - यह छठा गुणस्थान है। औपनिवेशिक स्वराज्य की इस अवस्था में जनता पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्ति का प्रयास करती है, उसके हेतु सजग होकर अपनी शक्ति का संचय करती है - यह सातवाँ गुणस्थान है। आगे वह अपनी पूर्ण स्वतंत्रता का उद्घोष करती हुई उन विदेशियों से संघर्ष प्रारम्भ करती है। संघर्ष की प्रथम स्थिति में यद्यपि उसकी शक्ति सीमित होती है और शत्रु वर्ग भयंकर होता है, फिर भी अपने अद्भुत साहस और शौर्य से उसको परास्त करती है - यही आठवाँ गुणस्थान है। नवाँ गुणस्थान वैसे ही है जैसे युद्ध के बाद आन्तरिक अवस्था को सुधारने और छिपे हुए शत्रुओं का उन्मूलन किया जाता है । १५
२४८
अनिवृत्तिकरण गुणस्थान
दृष्ट, श्रुत अथवा भुक्त विषयों की आकांक्षा का अभाव होने के कारण नवें गुणस्थान में अध्यवसायों की विषयाभिमुखता नहीं होती अर्थात् भाव पुनः विषयों की ओर नहीं लौटते । इस प्रकार भावों-अध्यवसायों की अनिवृत्ति के कारण इस अवस्था का नाम अनिवृत्तिकरण गुणस्थान रखा गया है। १६ आध्यात्मिक विकास के क्रम में गतिशील साधक जब कषायों में केवल बीजरूप सूक्ष्म लोभ छोड़कर शेष सभी कषायों का क्षय या उपशमन कर देता है, उसके काम आदि वासनात्मक भाव भी समूल नष्ट हो जाते हैं, तब आध्यात्मिक विकास की यह अवस्था प्राप्त होती है। इस गुणस्थान में आत्मा बादर अर्थात् स्थूल कषायों के उपशमन अथवा क्षपण में तत्पर रहती है। अतः इसे अनिवृत्तिबादर गुणस्थान, अनिवृत्ति बादर सम्पराय (कषाय) गुणस्थान अथवा बादर सम्पराय गुणस्थान भी कहते हैं । १७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org