Book Title: Jain evam Bauddh Yog
Author(s): Sudha Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 270
________________ २५६ जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन यदि हम कान्ता के शाब्दिक अर्थ को देखें तो कान्ता का अर्थ ही होता हैलावण्यमयी, प्रियंकारी गृहस्वामिनी। ऐसी सनारी पतिव्रता होती है, जिसकी अपनी विशेषता होती है। वह घर, परिवार तथा जगत के सारे कार्य को करते हुए भी एक मात्र अपना चित्त अपने पति से जोड़े रहती है। उसके चिन्तन का एकमात्र केन्द्र उसका पति ही होता है। इसी प्रकार कान्तादृष्टि में पहुँचा हुआ साधक आवश्यक और कर्तव्य की दृष्टि से जहाँ जैसा करना अपेक्षित है, वह सब करता है, परन्तु उसमें आसक्त नहीं होता। उसका मन तो एक मात्र श्रुत-निर्दिष्ट धर्म में ही लीन रहता है। उसके चिन्तन का केन्द्र आत्मस्वरूप में प्रतिष्ठित होता है। अत: कहा जा सकता है कि कान्तादृष्टि में साधक की स्थिति अनासक्त कर्मयोगी की होती है। जैसा कि गीता में श्री कृष्ण ने कहा है कि अनासक्त होकर कर्म करते जाओ,फल की इच्छा मत करो। आसक्ति का परित्यागकर, सिद्धि-सफलता, असिद्धि-असफलता में समान बनकर योग में स्थित होकर तुम कर्म करो। यह समत्व ही योग है।५३ प्रभादृष्टि इस दृष्टि की उपमा सूर्य के प्रकाश से दी गयी है। जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश से सारा विश्व प्रकाशित होता है तथा उसका प्रकाश अत्यन्त तीव्र, ओजस्वी एवं तेजस्वी होता है, उसी प्रकार प्रभादृष्टि का बोध-प्रकाश भी अत्यन्त तीव्र, ओजस्वी एवं तेजस्वी होता है तथा साधक को समस्त पदार्थों का यथार्थ ज्ञान हो जाता है। सूर्य की भाँति अत्यन्त सुस्पष्ट दर्शन की प्राप्ति होती है। किसी भी प्रकार का रोग नहीं होता तथा प्रतिपाति नामक गुण का आर्विभावहोता है। इस अवस्था में साधक को इतना आत्मविश्वास हो जाता है कि वह कषायों में लिप्त होते हुए भी अलिप्त-सा रहता है, रोगादि क्लेशों से पीड़ित होने पर भी विचलित नहीं होता। फलत: उसमें पूर्व में संचित विषमवृत्ति के बदले प्राणियों में समता अथवा असंगानुष्ठान का उदय होता है, इच्छाओं का नाश हो जाता है और साधक सदाचार का पालन करते हुए मोक्षमार्ग की ओर अग्रसर होता है अर्थात् यहीं से मोक्षमार्ग का श्री गणेश होता है।५५ असंगानुष्ठान चार प्रकार के होते हैं- प्रीति, भक्ति,वचन और असंगानुष्ठान। जिसे योगदृष्टिसमुच्चय में प्रशांतवाहिता, विसंभागपरिक्षय, शैववर्त्म और ध्रुवाध्वा के नाम से बताया गया है।५६ अत: यहाँ साधक का प्रातिभज्ञान या अनुभूति प्रसूतज्ञान इतना प्रबल एवं उज्ज्वल हो जाता है कि उसे शास्त्र के प्रयोजन की आवश्यकता नहीं रहती, ज्ञान की साक्षात् उपलब्धि उसे हो जाती है। आत्मसाधना की यह बहुत ही ऊँची स्थिति होती है। ऐसी उत्तम, अविचल, ध्यानावस्था से आत्मा में अपरिसीम सुख का स्रोत फूट पड़ता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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