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आध्यात्मिक विकास की भूमियाँ
सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान
मोहनीयकर्म की २८ कर्म- प्रकृतियों में से २७ कर्म - प्रकृतियों के क्षय या उपशम हो जाने पर जब मात्र संज्वलन लोभ शेष रह जाता है तब साधक इस गुणस्थान में पहुँचता है। आध्यात्मिक पतन के कारणों में मात्र सूक्ष्म लोभ के शेष रहने के कारण ही इस गुणस्थान का नाम सूक्ष्मसम्पराय है।
उपशान्तमोह गुणस्थान
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आध्यात्मिक विकास की इस भूमि में वे साधक आते हैं जो क्रोधादि का दमन कर या उपशम कर विकास की ओर बढ़ते हैं और जो साधक वासनाओं को सर्वथा निर्मूल करते हुए क्षायिक की श्रेणी से विकास करते हैं, वे आध्यात्मिक विकास की इस भूमि में न आकर सीधे बारहवें गुणस्थान में चले जाते हैं। इस गुणस्थान में साधक के समस्त कषाय उपशान्त हो जाते हैं, दब जाते हैं, इसलिए इसका नाम उपशान्त कषाय गुणस्थान या उपशान्त मोह गुणस्थान कहा गया है। इसमें आत्मा (साधक) मोह को एक बार दबा तो देती है, किन्तु निर्मूल नाश के अभाव में दबा हुआ मोह राख में दबी हुई अग्नि की भाँति समय आने पर पुनः उत्पन्न हो जाता है और साधक का साधना - पथ से पतन हो जाता है। इस अवस्था में आत्मा एक बार निश्चित रूप से पतित होकर नीचे की किसी भूमिका पर आ टिकती है। कभी-कभी तो ऐसा होता है कि आत्मा पतित होकर सबसे नीचे की भूमिका मिथ्यात्व गुणस्थान तक पहुँच जाती है। ऐसा क्यों होता है ? प्रश्न सहज ही उपस्थित होता है । उत्तरस्वरूप यह कहा जा सकता है कि आध्यात्मिक विकास की तीन विधियाँ हैं- क्षायिकविधि, उपशमविधि और क्षयोपशम विधि। क्षायिक विधि में साधक कषायों को नष्ट करते हुए आगे बढ़ता है और उपशम विधि में कषायों को दबाकर आगे बढ़ता है। क्षायोपशमिक क्षायिक और उपशम का मिश्रित रूप है जिसमें कषाय को आंशिक रूप में नष्ट करके या आंशिक रूप में दबाकर माधक विकास-क्रम में आगे बढ़ता है। अतः साधक इस ग्यारहवें गुणस्थान मे उपशम विधि द्वारा कषायों को दबाकर ही प्रवेश करता है। यही कारण है कि जो साधक उपशम विधि द्वारा कषायों को दमित करके आगे बढ़ता है, उसके पतन की सम्भावना निश्चित रहती है। गोम्मटसार में कहा गया है कि जिस प्रकार शरद ऋतु में सरोवर का पानी मिट्टी के नीचे बैठ जाने से स्वच्छ दिखाई पड़ता है, लेकिन उसकी निर्मलता स्थायी नहीं होती, मिट्टी के कारण समय आने पर वह पुन: मलिन हो जाता है, उसी प्रकार जो आत्माएँ मिट्टी के समान कर्ममल के दब जाने से नैतिक प्रगति एवं आत्मशुद्धि की इस अवस्था को प्राप्त करती हैं वे एक समयावधि के पश्चात् पुनः पतित हो जाती हैं।" यही कारण हैं कि उपशम विधि के द्वारा आध्यात्मिक विकास करनेवाला साधक साधना के मार्ग में उच्च स्तर पर पहुँच कर भी पतित हो जाता है।
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