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जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन
कहलाता है। इस गुणस्थान में कोई भी आत्मा प्रथम गुणस्थान से होकर नहीं आती बल्कि ऊपर की श्रेणियों से पतित होकर प्रथम गुणस्थान की ओर जाती है तो इस द्वितीय गुणस्थान की अवस्था से गुजरती है। इसका काल अति अल्प होता है। मिश्र गुणस्थान
यह गुणस्थान आत्मा की वह अवस्था है जिसमें न केवल सम्यक्-दृष्टि होती है और न केवल मिथ्यादृष्टि। यह दही और गुड़ की भाँति सम्यक्त्व और असम्यक्त्व का मिश्रित रूप है, इसीलिए इसे मिश्र गुणस्थान कहा जाता है। यह भ्रांति की एक ऐसी अवस्था होती है जिसमें सत्य और असत्य ऐसे रूप में प्रस्तुत होते हैं कि साधक यह पहचान नहीं पाता है कि इनमें सत्य कौन है और असत्य कौन है? वस्तुत: जब साधक सत्य और असत्य के मध्य किसी एक का चुनाव न कर सकने के कारण अनिर्णय की अवस्था में होता है, तब ही यह अनिश्चय की स्थिति उत्पन्न होती है। अत: इस अनिर्णय की स्थिति में साधक को न तो सम्यक्दृष्टि कहा जा सकता है और न मिथ्यादृष्टि ही। इस गुणस्थान में आत्मा प्रथम गुणस्थान से विकसित होकर नहीं आती है, बल्कि चतुर्थ गुणस्थान से पतित होकर प्रथम गुणस्थान को प्राप्त करने के लिए इस अवस्था से गुजर कर जाती है। परन्तु यह भी नहीं कहा जा सकता कि आत्माएँ तृतीय गुणस्थान में विकसित होकर आ ही नहीं सकती, बल्कि प्राप्त कर सकती हैं। जो आत्माएँ चतर्थ गुणस्थान में यथार्थ का बोध करके पुन: पतित होकर प्रथम गुणस्थान को प्राप्त करती हैं, वे ही आत्माएँ अपनी उत्क्रान्ति काल में प्रथम गुणस्थान से सीधे तृतीय गुणस्थान में आती हैं, लेकिन जिन आत्माओं ने कभी सम्यक्त्व का स्पर्श नहीं किया है वे अपने विकास में प्रथम गुणस्थान से सीधे चतुर्थ गुणस्थान में जाती हैं। इस प्रकार मिश्र गुणस्थान जीवन के संघर्ष की अवस्था का द्योतक है जिसमें सत्य और असत्य, शुभ और अशुभ अथवा मानव में निहित पाशविकवृत्तियाँ और आध्यात्मिक वृत्तियों के मध्य संघर्ष चलता है। यह संघर्ष अन्तर्मुहूर्त (४८मिनट) से अधिक नहीं चलता, क्योंकि इसमें स्थित आत्मा शीघ्र ही अपनी तत्कालीन परिस्थिति के अनुसार या तो मिथ्यात्व अवस्था को प्राप्त कर लेती है या सम्यक्त्व अवस्था को। इस गुणस्थान की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता है कि इस अवस्था में मृत्यु नहीं होती। इस सन्दर्भ में आचार्य नेमीचन्द्र का कहना है कि मृत्यु उसी स्थिति में संभव होती है, जिसमें भावी आयुकर्म का बन्ध नहीं होता, अत: मृत्यु भी नहीं हो सकती।१३ यही आध्यात्मिक विकास की तीसरी भूमिका मिश्र गुणस्थान है। अविरत सम्यक्-दृष्टि गुणस्थान
आध्यात्मिक विकास की इस अवस्था में साधक को यथार्थता का बोध हो जाता
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