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जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन
चारों आगमों के बीच स्थित होकर यह विसुद्धिमग्ग उनके यथार्थ अर्थ को प्रकाशित करेगा।
सम्पूर्ण विसुद्धिमग्ग तीन भागों तथा तेईस परिच्छेदों में विभक्त है। जिसके प्रथम भाग में शील,४३ धुताङ्ग,४४ कर्मस्थान ग्रहण करने की विधि,४५ कसिण,४६ अशुभ कर्मस्थान,४७ षड् अनुस्मृति ८ आदि का विवेचन किया गया है। द्वितीय भाग जिसके ११वें परिच्छेद में समाधि निर्देश ९ है, साथ ही ब्रह्मविहार निर्देश का भी वर्णन है। तृतीय भाग जिसके अन्तर्गत प्रज्ञाभूमि-निर्देश, दृष्टि-विशुद्धि-निर्देश, ज्ञान-दर्शन-विशुद्धि निर्देश तथा प्रज्ञा भावना आदि निर्देश निरूपित किया गया है।
इस ग्रन्थ का रचनाकाल ई० की ४थी शती है, ऐसा माना जाता है। अभिधम्मत्थसंगहो
इस ग्रन्थ के रचयिता बर्मा निवासी आचार्य अनिरुद्ध माने जाते हैं। आचार्य अनिरुद्ध का समय ४थी से ५वीं शताब्दी माना जाता है। आचार्य अनिरुद्ध आचार्य बुद्धघोष और आचार्य वसुबन्धु के प्राय: समकालीन थे। अभिधम्मत्थसंगहो पालि भाषा में निबद्ध है तथा तृतीय पिटक अभिधम्म का प्रवेश-द्वार माना जाता है। कहा भी गया है- जिस प्रकार हिमालय विस्तार में अत्यधिक लम्बे-चौड़े बीहड़ जंगलों के कारण दुःप्रवेश है, उसी प्रकार इस पिटक की दशा है। जिस प्रकार नक्शों और चार्टों के द्वारा जंगल में सहज ही प्रवेश किया जा सकता है, उसी प्रकार अभिधम्मत्थसंगहो को स्वायत्त कर लेने पर अभिधर्म में प्रवेश करना सुगम है।
अभिधम्मत्थसंगहो नौ परिच्छेदों में विभक्त है। इसके प्रथम छ: परिच्छेदों में चित्त, चैत्तसिक रूप और निर्वाण का वर्णन प्राप्त होता है। बाद के तीन परिच्छेदों में बौद्ध धर्म के कुछ जटिल प्रश्नों का समाधान किया गया है। कुल नौ परिच्छेद इस प्रकार हैं- चित्त संग्रह, चैतसिकसंग्रह, पण्णिकसंग्रह, वीथिसंग्रह, वीथिमुक्तसंग्रह, रूपसंग्रह, समुच्चयसंग्रह, प्रत्ययसंग्रह तथा कर्मस्थानसंग्रह । कालान्तर में इस पर अनेक टीकाएँ लिखी गयीं, जिनमें विभाविनी और परमत्थदीपनी टीकाएँ विद्वता की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण मानी जाती हैं। अभी धर्मानन्द कोशाम्बी ने नवनीता टीका लिखकर इस ग्रन्थ के गम्भीर तथ्यों को सरल एवं सुबोध बना दिया है। बोधिचर्यावतार
इस ग्रन्थ के रचयिता आचार्य शान्तिदेव हैं, जिनका समय सातवीं शताब्दी माना जाता है। सर्वप्रथम इसका रूसी संस्करणं निकला था। यह महायान बौद्ध धर्म में बोधि
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