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योग-साधना का आचार पक्ष
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विधान नहीं है। अंगुत्तरनिकाय में कहा गया है- हे भिक्षुओं यह जो गाना है, वह आर्यविनय के अनुसार रोना है, यह जो नाचना है वह आर्य-विनय के अनुसार पागलपन ही है। भिक्षुओं यह जो देर तक दाँत निकाल कर हँसना है वह आर्य-विनय के अनुसार बचपन ही है। अतः भिक्षुओं यह जो गाना है, यह सेतु का घात मात्र ही है, यह जो नाचना है, यह सेतु का घात मात्र ही है। धर्मानन्दी सन्त पुरुषों का मुस्कुराना ही पर्याप्त है । १६७ जैन परम्परा में अलग से इस व्रत का विधान नहीं है । यद्यपि मुनियों के लिए नृत्यादि का निषेध किया गया है।
माल्यगन्ध धारण- विरमण किसी भी प्रकार की माला धारण करना, सुगन्धित पदार्थों का विलेपन करना, शरीर श्रृंगार या आभूषण धारण करना आदि उपोसथ शीलधारी श्रावक एवं भिक्षु दोनों के लिए वर्जित किया गया है।
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उच्चशय्या, महाशय्या - विरमण भिक्षुओं के लिए किसी भी प्रकार की आरामदायक वस्तुएँ जिनसे उनका श्रामण्य च्युत होता हो, वर्जित है। इसीलिए गद्दी, तकिया आदि से युक्त उच्चशय्या पर सोना भिक्षु के लिए मना किया गया है। बुद्ध ने कहा है - हे भिक्षुओं ! इस समय भिक्षु लोग लकड़ी के बने तख्त पर सोते हैं, अपने उद्योग में आतापी और अप्रमत होकर विहार करते हैं। पापी मार इनके विरुद्ध कोई दावँ-पेच नहीं पा रहा है। भिक्षुओं! भविष्यकाल में भिक्षु लोग गद्देदार बिछावन पर गुलगुल तकिये लगाकर दिन चढ़ आने तक सोये रहेंगे। जिससे उनके विरुद्ध पापी मार दावँ-पेच कर सकेगा। इसलिए हे भिक्षुओं! तुम्हे यह लकड़ी के बने हुए तख्त पर सोना चाहिए, अपने उद्योग में आतापी होकर और अप्रमत होकर विहार करना चाहिए, सीखना चाहिए । १६८
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जातरूप रजत-विरमण - जीवनयापन के लिए बौद्ध मान्यता के अनुसार भिक्षु को त्रिचीवर भिक्षा पात्र, पानी छानने के लिए छन्ने से युक्त पात्र, उस्तरा आदि सीमित वस्तुएं रखने का विधान है। जैसा सुत्तनिपात में कहा गया है कि मुनि को परिग्रह में लिप्त नहीं रहना चाहिए। क्योंकि मनुष्य खेती, वास्तु, हिरण्य, गो, अश्व, दास आदि अनेक पदार्थों की लालसा करता है, फलतः वासनाएँ उसे दबाती हैं और बाधाएँ मर्दन करती हैं। तब वह पानी में टूटी नाव की तरह दुःख के घेरे में पड़ता है । १६९ इतना ही नहीं बल्कि यहाँ तक कहा गया है कि भिक्षु संघ या गृहस्थ उपासकों के द्वारा प्राप्त वस्तुओं को मात्र उपयोग में ला सकता है, परन्तु उसका स्वामी नहीं कहला सकता।
तीन गुप्ति (कर्म)
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बौद्ध परम्परा में गुप्ति के स्थान पर कर्म शब्द का प्रयोग किया गया है। ऐसे सुत्तनिपात में एक जगह गुप्ति शब्द का प्रयोग हुआ है । १७० मन, वचन और काय से
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