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योग-साधना का आचार पक्ष
१७३ इस प्रकार बौद्ध परम्परा में यद्यपि समितियों का स्वतंत्र रूप से कहीं वर्णन नहीं मिलता। फिर भी, भिक्षुओं के आवागमन, भाषा, भिक्षा एवं वस्तुओं के आदान-प्रदान व मल-मूत्र विसर्जन आदि पर विचार किया गया है। परीषह
बौद्ध परम्परा में भी भिक्षु जीवन में आनेवाले कष्टों को समभावपूर्वक सहन करने का निर्देश दिया गया है। जैन परम्परा में २२परीषहों का वर्णन आया है। जिसे एक साधन के रूप में स्वीकार किया गया है, जबकि बौद्ध परम्परा में इसे बाधक तत्त्व के रूप में स्वीकार किया गया है तथा उनसे बचने का निर्देश दिया गया है। अंगुत्तरनिकाय के अनुसार दुःखपूर्वक, तीव्र, प्रखर, कटु, प्रतिकूल, बुरी, प्राणहर शारीरिक वेदनाएं आदि को सहन करने का प्रयास करना चाहिए।१७८ इसी प्रकार सुत्तनिपात में भी कहा गया है कि धीर, स्मृतिवान, संयत आचरणवाले भिक्षु को डसनेवाली मक्खियों से, सर्पो से, पापी मनुष्यों के द्वारा दी जानेवाली पीड़ा से तथा चतुष्पदों से भयभीत नहीं होना चाहिए, बल्कि इन बाधाओं का सामना करना चाहिए। रोग, पीड़ा, भूख-वेदना आदि को सहन करना चाहिए।१७९
अत: भिक्षुओं को प्रज्ञापूर्वक कल्याणरत हो उन बाधाओं को दूर करना चाहिए, जो साधना-मार्ग में बाधक हैं।१८० तुलना
जैन एवं बौद्ध दोनों ही परम्पराओं में योग-साधना के आधारभूत तत्त्वों का अध्ययन करने पर जो समानताएँ और विषमताएँ उभरकर सामने आयीं, वे इस प्रकार हैं
१. दोनों परम्पराओं में गृहस्थ उपासक के लिए निषिद्ध व्यवसायों का वर्णन मिलता है। यदि अन्तर है तो ये कि जैन परम्परा में उसकी संख्या १५ है तथा बौद्ध परम्परा में ५ है।
२. जैन परम्परा में गृहस्थ उपासकों के लिए जहाँ महाव्रतों को सरलता का रूप प्रदान करते हुए अणुव्रतों का विधान किया गया है, वहीं बौद्ध परम्परा में पंचशील का वर्णन देखने को मिलता है। यदि अन्तर है तो यह कि बौद्ध परम्परा में भिक्षु और गृहस्थ दोनों के लिए पंचशील की एक ही पद्धति बतायी गयी है। जैसा कि बौद्धचर्या में वर्णन है कि गृहस्थ उपासक के लिए वर्णित प्राणातिपात-विरमण में श्रावक को स्थावर एवं बस दोनों ही प्राणियों की हिंसा से विरत रहना है। जबकि एक श्रावक के लिए स्थावर जीवों की हिंसा से वंचित रह पाना संभव प्रतीत नहीं होता।
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