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जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन
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अप्रशस्त प्रवृत्तियों को रोकना गुप्ति है । १७१ बुद्ध ने कहा है- मन, वचन और शरीर तीन शुचिभाव हैं । १७२ निर्लोभी होना, अक्रोधी होना, सम्यक् दृष्टिवाला होना मन का शुचि भाव है। इसी प्रकार असत्य से विरत रहना, चुगली खाने से विरत रहना, व्यर्थ बोलने से विरत रहना वचन शुचिता तथा प्राणी हिंसा से विरत रहना, चोरी से विरत रहना, कामभोग सम्बन्धी मिथ्याचार से विरत रहना शरीर शुचिता है।
समितियाँ
बौद्ध ग्रन्थों में समिति का कहीं स्पष्ट उल्लेख नही मिलता है। हाँ ! कहीं-कहीं कुछ ऐसे तथ्य अवश्य मिलते हैं जिनको समितियों की संज्ञा दी जा सकती है। यथा- संयुक्तनिकाय में बुद्ध ने कहा है- भिक्षुओं, भिक्षु आने-जाने में सचेत रहता है, देखने-भालने में सचेत रहता है, समेटने - पसारने में सचेत रहता है । संघाटी, पात्र और चीवर धारण करने में सचेत रहता है। मल-मूत्र विसर्जन में सचेत रहता है। इस प्रकार जाते, खड़े होते, बैठते, जागते, कहते, चुप रहते सचेत रहता है । १७३
इसी प्रकार अन्य ग्रंथों में भी समितियों के वर्णन उपलब्ध होते हैं। विनयपिटक एवं सुत्तनिपात के अनुसार
१. आवागमन की क्रिया में सावधानीपूर्वक मन्थर गति से गमन करना चाहिए, गमन करते समय वरिष्ठ भिक्षुओं से आगे नहीं चलना चाहिए। साथ ही चलते समय नजर नीचे की ओर रखनी चाहिए तथा न तो जोर-जोर से हँसना चाहिए और न बातचीत ही करते हुए चलना चाहिए । १७४ जैन परम्परा में इसे ईर्ष्या समिति कहा जाता है।
२. भिक्षावृत्ति के समय भिक्षु चुपचाप रहे, रात्रि बीतने पर सुबह भिक्षुओं को भिक्षा के लिए गाँव में पैठना चाहिए। यदि भिक्षा में कुछ मिले तो अच्छा नहीं मिले तो अच्छा। इस तरह दोनों अवस्थाओं में अविचलित रहकर वन में चला आये । भिक्षु न तो किसी का निमंत्रण स्वीकार करे और न ही किसी द्वारा लाये गये भोजन को ग्रहण करे। १७५ जैन परम्परा में इसे एषणा- समिति कहा गया है।
३. असमय में विचरण न करना । असमय में विचरण करनेवाले को आसक्तियाँ लग जाती हैं। अतः असमय में ज्ञानी पुरुष को विचरण नहीं करना चाहिए । १७६ यह भी एषणा-समिति के अन्तर्गत ही आता है।
४. वाणी में संयम रखना, मित्तभाषी होना, विनीत होना, जो विनीत होता है वही धर्म और अर्थ को प्रकाशित करता है । १७७ जैन परम्परा में इसे भाषा समिति कहते हैं । इसी तरह अविवेकपूर्ण वचन न बोलकर विवेकपूर्ण वचन बोलना चाहिए ।
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