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जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन
वेदना है जिसे सुख-दु:ख के प्रहाण से ही प्राप्त किया जा सकता है। सुख-दुःख के प्रहाण के साथ-साथ राग-द्वेष भी नष्ट हो जाते हैं। फलत: स्मृति पूर्ण रूप से परिशुद्ध हो जाती है, क्योंकि रागद्वेषविहीन उपेक्षा ही स्मृति की परिशुद्धि में प्रधान कारण होती है। किन्तु ऐसा नहीं कहा जा सकता कि पूर्व के तीनों ध्यान उपेक्षा विहीन होते हैं, बल्कि पूर्व के तीनों ध्यानों में भी उपेक्षा विद्यमान रहती है, किन्तु वह वितर्क, विचार, प्रीति तथा सुख से युक्त होने के कारण अपरिशुद्ध रूप में होती है और यह स्वाभाविक भी है कि उपेक्षा के अपरिशुद्ध होने पर स्मृति भी अपरिशुद्ध होगी। अत: वितर्क आदि के शान्त होने से उपेक्षा अत्यन्त परिशुद्ध हो जाती है और उपेक्षा की परिशुद्धि से स्मृति आदि भी परिशुद्ध हो जाती है।२०५
कहीं-कहीं पाँच ध्यानों (ध्यान पंचक) का वर्णन देखने को मिलता है। ध्यानपंचक के द्वितीय ध्यान में वितर्क को छोड़कर विचार, प्रीति, सुख और एकाग्रता—ये चार
अंग हैं, तृतीय ध्यान में विचार नहीं है। इसमें प्रीति, सुख तथा एकाग्रता ये-तीन अंग हैं, अन्तिम दो ध्यान ध्यानचतुष्टक का तृतीय और चतुर्थ ध्यान है। इससे स्पष्ट होता है कि पाँचवाँ ध्यान कोई नया नहीं है, बल्कि चतुष्टक ध्यान के द्वितीय ध्यान को ही दो भागों में विभक्त कर दिया गया है।
अरूपावचर ध्यान
रूपावचर ध्यान की प्राप्ति के पश्चात् साधक अरूपावचर ध्यान की ओर अग्रसर होता है। यद्यपि रूपावचर ध्यान की चतुर्थ अथवा पंचम ध्यान की अवस्था के बाद निर्वाण या मोक्ष का साक्षात्कार सम्भव हो जाता है, फिर भी साधक निर्वाण और निराकार आलम्बन पर ध्यान करता है। रूपावचर ध्यान में साधक एक ही निमित्त को आलम्बन के रूप में स्वीकार करता है तथा उसी के सहारे सूक्ष्म से सूक्ष्मतर अवस्था को प्राप्त करता है, वहीं अरूपावचर ध्यान में साधक आलम्बनों को बदलते हुए ध्यान की सूक्ष्म से सूक्ष्मतर अवस्था को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। परन्तु इतना निश्चित है कि चार रूपावचर ध्यान की प्राप्ति के पश्चात् ही चार अरूपावचर ध्यान की प्राप्ति होती है। करजरूप (शुक्रशोणित से उत्पन्न) काय में और इन्द्रिय तथा उनके विषय में दोष देखकर रूप का समतिक्रम करने के हेतु यह ध्यान किया जाता है। फलतः साधक कसिण रूप का अतिक्रमण कर रूप-विमुक्त अरूप-ध्यान की भावना करता है। रूपावचर से अरूपावचर की ओर अग्रसर होने को एक उदाहरण द्वारा बड़े ही सरल शब्दों में समझाया गया है। कहा गया है-जिस प्रकार कोई पुरुष सर्प से भयभीत होकर सर्प के समान दिखनेवाली रस्सी से भी भय खाता है अथवा जिस प्रकार पिशाच से डरनेवाला पुरुष
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