________________
जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन
२१२
होती है वह वितर्क विचार के साथ होने के कारण निर्बल रूप में रहती है, वही श्रद्धा द्वितीय ध्यान में आकर बलवती हो जाती है जिस कारण साधक का चित्त सुप्रसन्न रहता हैं । १९५ अभिधर्मकोश में इस ध्यान को संप्रसाद कहा गया है । अर्थात् श्रद्धायुक्त होने के कारण तथा वितर्क-विचार के क्षोभ से व्युपशम होने के कारण यह चित्त को सुप्रसन्न करता है। संप्रसाद इस ध्यान का परिष्कार है । १९६ चूँकि यह समाधि में वृद्धि करता है, इसलिए इसे एकोदिभाव कहते हैं । १९७ इस ध्यान पर भी पाँच वशिताओं द्वारा आधिपत्य स्थापित करना चाहिए।
सुख एकाग्र सहित (तृतीय ध्यान )
इस ध्यान में केवल सुख और एकाग्रता की ही प्रधानता रहती है। द्वितीय ध्यान से उठकर साधक जब विचार करता है तो उसे प्रीति से युक्त होने के कारण द्वितीय ध्यान भी दोषयुक्त प्रतीत होता है, क्योंकि प्रीति स्थूल होती है और इसकी प्रवृत्ति का आकार उद्वेगपूर्ण होता है। इसलिए प्रीति से युक्त द्वितीय ध्यान भी त्याज्य है। ऐसा विचार कर साधक सुख तथा एकाग्रता — इन दो अंगोंवाले तृतीय ध्यान की ओर प्रयत्नशील होता है। वह स्थूल अंग के प्राण एवं तृतीय ध्यान की प्राप्ति के लिए पृथ्वी निमित्त का बारम्बार चिन्तन करता है । ९९८ फलतः भवांग का उपच्छेद हो चित्त का आवर्जन होता है । तदन्तर उसी पृथ्वी-कसिण आलम्बन में चार या पाँच जवन उत्पन्न होते हैं। इनमें से केवल अन्तिम जवन रूपावचर- तृतीय ध्यान का है । १९९ इस ध्यान में साधक प्रीति एवं विराग से भी उपेक्षायुक्त होकर स्मृति एवं संप्रज्ञता को ही महत्त्व देता है । वह शरीर के आर्यों (जिसने आर्य ज्ञान प्राप्त कर लिया हो) के द्वारा कहे गये सभी सुखों का अनुभव करते हुए उपेक्षा के साथ स्मृतिमान और सुख विहारवाले तीसरे ध्यान को प्राप्त होकर विहरता है । २०० तृतीय ध्यान को करनेवाला ध्यानी उपेक्षा, स्मृति तथा संप्रज्ञता से युक्त होता है।
700
२०१
उपेक्षा - न तो प्रीति से ही चित्त में कोई विक्षेप उत्पन्न होता है और न विराग से ही । चित्त जिन भावों की उपेक्षा कर समता का अनुभव करता है, उनके दश प्रकार हैं २ ० १ — षडंगोपेक्षा, ब्रह्मविहारोपेक्षा, बोध्यंगोपेक्षा, वीर्योपेक्षा, संस्कारोपेक्षा, वेदनोपेक्षा, विपश्यनोपेक्षा, तत्रमध्यत्वोपेक्षा, ध्यानोपेक्षा और परिशुद्धयुपेक्षा । यद्यपि ये उपेक्षायें प्रथम एवं द्वितीय ध्यान में भी रहती हैं, किन्तु वहाँ वितर्क, विचार एवं प्रीतिरूप अंगों के होने के कारण इनका कार्य अव्यक्त रहता है।
स्मृति - साधक को द्वितीय ध्यान के समय होनेवाली वृत्तियों की स्मृति का बना रहना स्मृति कहलाता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org