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ध्यान
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में चार भेद ही किये गये हैं। यद्यपि ध्यान के ये चार प्रकार कब और कैसे जैन परम्परा में विकसित हुए, इनका स्रोत कहाँ है तथा वे उतरोत्तर किस प्रकार से विकास को प्राप्त हुए, यह विचारणीय है; क्योंकि स्थानांग, समवायांग, भगवती, ध्यानशतक, हरिवंशपुराण, आदिपुराण आदि ग्रन्थों एवं उनकी टीकाओं में इन भेदों का निर्देश नहीं किया गया है। शास्त्रों के अध्ययन से ऐसा प्रतीत होता है कि पिण्डस्थ, पदस्थ आदि भेदों का उल्लेख सर्वप्रथम आचार्य योगीन्दु विरचित योगाचार जिसका काल ई० की छठी शताब्दी माना जाता है, में मिलता है। तत्पश्चात् इन भेदों का उल्लेख आचार्य शुभचन्द्र कृत ज्ञानार्णव (११ वीं शती) तथा आचार्य हेमचन्द्र सूरि विरचित योगशास्त्र (१२वीं - १३वीं शती) में मिलता है।
पिण्डस्थध्यान
'पिण्ड' का अर्थ होता है- 'शरीर' । अतः पिण्डस्थ का अभिप्राय होता है- शरीर में रहनेवाली आत्मा। इस प्रकार सामान्य भाषा में यह कहा जा सकता है कि पिण्ड अर्थात् शरीर सहित आत्मा का ध्यान करना पिण्डस्थध्यान कहलाता है। योगशास्त्र तथा ज्ञानार्णव में इसके पाँच प्रकार १३७ बताये गये हैं, जो इस प्रकार हैं
(१) पार्थिवी धारणा, (२) आग्नेयी धारणा, (३) श्वासना धारणा, (४) वारूणी धारणा, (५) तत्त्वरूपवती धारणा ।
पार्थिवी धारणा-साधक यह कल्पना करे कि मध्यलोक के बराबर लम्बे-चौड़े क्षीरसागर में जम्बूद्वीप के बराबर एक लाख योजन विस्तारवाला और हजार पंखुड़ियोंवाला कमल है। उस कमल के मध्य में एक सिंहासन है । उस पर वह बैठा है और विश्वास करे कि हमारे समस्त कर्मों (कषायों) का क्षय हो रहा है। ऐसा विचार पार्थिवी धारणा के रूप में जाना जाता है १३८
आग्नेयी धारणा - सिहांसन पर बैठा हुआ साधक यह कल्पना करे कि उसकी नाभि में सोलह पंखुड़ियोंवाला कमल है, उसकी कर्णिका में एक महामंत्र अर्हम् है और उसके प्रत्येक दल पर एक-एक स्वरूप है । अर्हम् के रेफ से धूमशिखा निकल रही है, स्फुलिंग उछल रहे हैं। अग्नि की ज्वाला भभक रही है, उसमें हृदय-स्थित अष्टदल कमल जो आठ कर्मों का सूचक है, जल रहा है... वह भस्मीभूत हो गया है... अग्निशान्त हो गयी है... ऐसा विचार आग्नेयी धारणा है । १३९
वायवी (श्वास) धारणा साधक यह चिन्तन करे कि लोक में महाबलवान् वायुमण्डल चल रहा है और वह आग्नेयी धारणा में देह एवं कमल को जलाने के पश्चात्
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