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ध्यान
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का संयोग होने पर तद्भव दुःख से व्याकुल आत्मा उसे दूर करने के लिए जो सतत् चिन्तन करती रहती है, वही अनिष्ट-वस्तु-संयोग आर्तध्यान है। इसे यदि हम और भी सरल भाषा में समझना चाहे तो इस प्रकार कह सकते हैं कि अग्नि, सर्प, सिंह आदि चल तथा दुष्ट राजा, शत्रु आदि स्थिर और शरीर, स्वजन, धन आदि के निमित्त से मन को जो क्लेश होता है वह अनिष्ट-वस्तु-संयोग आर्तध्यान है।४२ इष्ट-वस्तु-वियोग आर्तध्यान
प्रिय वस्तु का वियोग होने पर उसकी प्राप्ति के लिए सतत् चिन्तन करना इष्ट-वस्तु-वियोग आर्तध्यान है। दूसरी भाषा में इष्ट एवं प्रिय पदार्थों की प्राप्ति के लिए छटपटाना, उन पदार्थों के साधन रूप चल-अचल अभीष्ट, माता-पिता आदि स्वजनों को प्राप्त करने की अभीष्ट अभिलाषा के प्रति दुःखी एवं चिन्तित रहना इष्ट-वस्तु-वियोग आर्तध्यान है। प्रतिकूल-वेदना-आर्तध्यान
दुःख आ पड़ने पर उसके निवारण की सतत् चिन्ता करना प्रतिकूल-वेदनाआर्तध्यान है।" अर्थात् शारीरिक एवं मानसिक रोगों से संयुक्त होने पर अथवा अस्त्र-शस्त्र से घायल हो जाने पर, असह्य वेदना से चित्त के व्याकुल हो जाने पर जीव का उनसे मुक्त होने के लिए रात-दिन चिन्ता करते रहना प्रतिकूल-वेदना-आर्तध्यान कहलाता है।४५ तात्पर्य है कि उत्पन्न वेदना के प्रति चिन्तन ही प्रतिकूल-वेदना-आर्तध्यान है। निदान-आर्तध्यान
___अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति के लिए संकल्प करना या सतत् चिन्तन करना निदान आर्तध्यान कहलाता है।'६ अर्थात् जो कामभोग वर्तमान जीवन में न प्राप्त हुए हों उन वासनाजन्य क्षणिक सुखों की इच्छा रखना, भोगों की लालसा करना, संयम, तप एवं ब्रह्मचर्य आदि शुभ क्रियाओं के बदले में नाशवान पौद्गलिक सुखों की प्राप्ति की कामना करना,४७ शत्रु से अगले जन्म में बदला लेने की लालसा रखना आदि निदान-आर्तध्यान है।४८
आर्तध्यान के कारण जीव सदा भयभीत, शोकाकुल, असंयमी, प्रमादी, कलहकारी, विषयी, निद्राशील, शिथिल, खेद-खिन्न तथा मूर्छाग्रस्त रहता है।४९ फलतः वह राग-द्वेष के कारण संसार भ्रमण करता है। साथ ही कुटिल चिन्तन के कारण वह तिर्यञ्च गति को प्राप्त करता है५० तथा ऐसे स्वभाव के कारण उसकी लेश्याएँ कृष्ण, नील एवं कापोत होती हैं।५१
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