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ध्यान
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सूक्ष्म-क्रिया-अप्रतिपाति
पूर्व के शुक्लध्यान को करने से जब साधक ज्ञानावरणादि चारों घातिया-कर्मों के नष्ट हो जाने के कारण सर्वज्ञ हो जाता है तब उसे केवली के नाम से जाना जाता है। वही केवली जब अन्तर्मुहूर्त मात्र आयु के शेष रहने पर मुक्तिगमन के समय कुछ योग निरोध कर चुकनेवाले सूक्ष्म काय की क्रिया से जो ध्यान करता है, वह सूक्ष्म-क्रियाअप्रतिपाति शुक्लध्यान कहलाता है।९१८ अभिप्राय है कि जब मन और वाणी के योग का पूर्ण निरोध हो जाता है और काय के योग का पूर्ण निरोध नहीं होता, साथ ही श्वासोच्छवास जैसी सूक्ष्म-क्रिया शेष रह जाती है तब उस अवस्था को सूक्ष्म क्रिया कहते हैं और चूँकि इसका पतन नहीं होता इसलिए यह अप्रतिपाती कहलाता है।११९ अरिहन्त परमेष्ठी की अवस्था में जब आयुकर्म अन्तर्मुहूर्त तक ही अवशिष्ट रहता है और अघातिया कर्मों में अर्थात् नाम, गोत्र, और वेदनीय इन तीनों की स्थिति आयुकर्म से अधिक हो जाती है, तब उन्हें समरूप में लाने के लिए तीर्थंकर एवं सामान्य केवली इन दोनों को समुद्घात की अपेक्षा होती है।१२० समुद्घात क्रिया द्वारा केवली तीन समय में अपने आत्मप्रदेशों को दण्ड, कपाट एवं प्रस्तर के रूप में फैला देता है और चौथे समय में सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हो जाता है। समुद्घात द्वारा साधक अघातिया कर्मों (वेदनीय, नाम और गोत्र) की स्थिति घटाकर आयुकर्म के बराबर कर लेता है तथा समस्त आत्मप्रदेशों को प्रतिलोम क्रम से संहरण करके अपने को पूर्ववत् शरीर व्यापी बना लेता है। तत्पश्चात् साधक स्थूल काययोग का आलम्बन लेकर मनोयोग एवं वचनयोग का निरोध करता है तथा सूक्ष्म काययोग का आलम्बन लेकर बादर काययोग, सूक्ष्म मनोयोग तथा वचंनयोग का भी निरोध कर डालता है। इसके लिए जो प्रक्रिया अपनायी जाती है वही सूक्ष्म-क्रियाप्रतिपाति शुक्लध्यान है।१२१ इस ध्यान की प्राप्ति के बाद साधक अन्य ध्यानों में नहीं लौटता है, अन्त में वह सूक्ष्मक्रिया का भी त्याग करके मोक्ष की प्राप्ति करता है।१२२ व्युपरत-क्रिया-निवृत्ति (उत्पन्न-क्रिया-निवृत्ति)
____ यह ध्यान शुक्लध्यान की अन्तिम अवस्था है। इस ध्यान में सूक्ष्मकाय यौगकीय क्रिया भी समाप्त हो जाती है। अत: कोई भी योग नहीं रहता और केवलज्ञानी अयोग केवली बन जाता है, क्योंकि इस समय आत्मा में किसी भी प्रकार के स्थूल, सूक्ष्म, मानसिक, वाचिक, कायिक व्यापार नहीं होता।१२३ अर्थात् ध्यान की अवशिष्ट सूक्ष्म क्रिया की भी निवृत्ति हो जाती है तथा अ, इ, उ, ऋ, ल इन पाँच ह्रस्व स्वरों के उच्चारण में जितना समय लगता है उतने समय में केवली भगवान् शैलेशी अवस्था को प्राप्त होते हैं, जहाँ वे पर्वत की भाँति निश्चल रहते हैं।१२४ यह अति उत्तम ध्यान चौदहवें अयोगी
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