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इसमें उसके नेत्र अग्नि के समान लाल हो जाते हैं, भौंहे टेढ़ी हो जाती हैं, पसीना आने लगता है और उसकी आकृति भयानक हो जाती है । ६७
ध्यान
इस प्रकार आर्तध्यान तथा रौद्रध्यान दोनों को अत्यन्त अशुभ माना गया है, क्योंकि दोनों ही सामान्य तौर से संसार की वृद्धि करनेवाले हैं और विशेषकर नरकगति के पापों को उत्पन्न करनेवाले हैं। इन्हीं से व्यक्ति नरकगति में पड़ जाता है।
धर्मध्यान
धर्म का चिन्तन धर्मध्यान है। यह आत्मविकास का प्रथम चरण है, क्योंकि इस ध्यान में जीव का रागभाव मंद रहता है और वह आत्मचिन्तन की ओर प्रवृत्त होता है। इस संसार में सभी जीव दुःखी हैं। ऐसा कोई नहीं जो सुखी हो। अतः सभी जीव ऐसे स्थान की तलाश में रहते हैं जहाँ थोड़ा-सा भी दुःख न हो। ऐसे अभीष्ट स्थान पर जो जीव को पहुँचाता है, वही धर्मध्यान है ।" जैसा कि प्रवचनसार की तात्पर्यव्याख्यावृत्ति में कहा गया है कि जो मिथ्यात्व, राग आदि में हमेशा संसरण कर रहे भवसंसार से प्राणियों को ऊपर उठाता है और विकाररहित शुद्ध चैतन्यभाव में परिणत करता है, वह धर्मध्यान है। ६९ परन्तु कहीं-कहीं सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक् चारित्र को धर्म कहा गया है और उस धर्म चिन्तन से युक्त जो ध्यान होता है, वह धर्मध्यान के नाम से जाना जाता है। ७° स्थानांग में इस ध्यान को श्रुत, चारित्र एवं धर्म से युक्त कहा गया है। १ अतः कहा जा सकता है कि वस्तु-धर्म या सत्य की गवेषणा में परिणत चेतना की एकाग्रता का नाम ही धर्मध्यान है। ज्ञानसार के अनुसार शास्त्र- वाक्यों के अर्थों, धर्मवर्गणाओं, व्रतों, गुप्तियों, समितियों, भावनाओं आदि का चिन्तन करना धर्मध्यान कहलाता है । ७२
धर्मध्यान के प्रकार
आलम्बन के आधार पर धर्मध्यान के चार प्रकार बताये गये हैं । ७३ आलम्बन अर्थात् किसी स्थूल का आश्रय लेकर सूक्ष्म वस्तु की ओर बढ़ना । बिना आलम्बन के साधक का मन एकाएक स्थिर नहीं हो पाता। इसीलिए साधक को किसी वस्तु का आलम्बन लेकर सूक्ष्मता की ओर बढ़ने का निर्देश दिया गया है। इसी को तत्त्वानुशासन में कहा गया है कि चित्त की एकाग्रता के साथ धर्मध्यान के चारों प्रकारों का चिंतन करना चाहिए | ४ तत्त्वार्थसूत्र में भी धर्मध्यान के चार प्रकारों का ही उल्लेख मिलता है।
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आज्ञाविचय, अपायविच्या विपाकविचय और संस्थानविचय।
आज्ञाविचय
आज्ञाविचय में दो शब्द हैं- आज्ञा और विचय। इसमें आज्ञा का अर्थ होता है
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