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षष्ठ अध्याय
ध्यान
भारतीय योग परम्परा में ध्यान का अपना एक विशिष्ट-स्थान है। भारतीय परम्परा का ऐसा कोई भी सम्प्रदाय या दर्शन (चार्वाक को छोड़कर) नहीं है जिसने योग या ध्यान-प्रक्रिया को स्वीकार न किया हो। चाहे वह ब्राह्मण परम्परा हो या श्रमण। सभी ने ध्यान की महत्ता पर प्रकाश डाला है और उसे अपनी चर्या-पद्धति में सर्वश्रेष्ठ स्थान दिया है। जहाँ तक ध्यान के प्रारम्भ की बात है तो ध्यान की प्रक्रियाओं का प्रारम्भ पूर्व वैदिक काल में ही हो चुका था। कोई भी आध्यात्मिक उपलब्धि बिना ध्यान-साधना के प्राप्त होना संभव नहीं है, क्योंकि यह सर्वविदित है कि पवित्र साधना से पवित्र साध्य की उपलब्धि होती है। सही माने में देखा जाय तो ध्यान प्राचीन काल से चलता आ रहा एक अभ्यास है जिसे उन सभी साधकों एवं विचारकों ने अपनाया है जिन्होंने विश्व की समस्याओं तथा मानव की आभ्यंतरिक संभावनाओं का विकास करना चाहा है।
जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप जैन योग साधना-पद्धति में ध्यान का स्थान सर्वोपरि है। यदि यह कहा जाय कि ध्यान-साधना जैन योग-साधना का पर्याय है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इसका मूल कारण है कि ध्यान के माध्यम से ही साधक में मानसिक शक्ति और सामर्थ्य का पुञ्ज प्रकट होता है अर्थात् मानव की सभी शक्तियाँ जाग्रत होती हैं जिससे कर्मों की श्रृंखला का अन्त होता है अर्थात् कर्मों का क्षय होता है। फलस्वरूप साधक संसार के आवागमन की प्रक्रिया से मुक्त हो जाता है और आवागमन की प्रक्रिया से मुक्त होना ही सच्चा सुख माना जाता है। जैसा कि आत्मानुशासन में कहा गया है जिसमें असुख का लेश भी न हो उसे ही यथार्थ सुख समझना चाहिए। ऐसा सुख जीव को कर्म-बंधन से रहित हो जाने पर मुक्ति में ही प्राप्त हो सकता है, जन्म-मरण रूपी संसार में यह सम्भव नहीं। ध्यान का अर्थ एवं लक्षण
जैन परम्परा में संयम अथवा चारित्र-विशुद्धि के लिए ध्यान को सर्वोत्तम साधन माना गया है। साथ ही जैन परम्परा में ध्यान का जितना सूक्ष्म एवं विस्तृत विवेचन किया गया है शायद ही किसी परम्परा में किया गया हो।
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