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जैन एवं बौद्ध योग का तत्त्वमीमांसीय आधार
११३ संसारी आत्माएँ कर्मबद्ध होने के कारण अनेक योनियों में परिभ्रमण करती हैं, उनका फल भोगती हैं।१९ मुक्त आत्माओं का इन सबसे कोई सम्बन्ध नहीं होता। उनका शरीर, शरीरजन्य क्रिया तथा जन्म और मृत्यु कुछ भी नहीं होता। वे आत्मस्वरूप हो जाती हैं, अतएव उन्हें सत्-चित्-आनन्द कहा जाता है।२० वे सभी कर्मों को त्यागकर लोकाग्र में निवास करती हैं।
__ संसारी जीव को दो भागों में विभाजित किया गया है- त्रस और स्थावर।२१ जिसमें गति होती है वह त्रस जीव कहलाता है और जिसमें गति नहीं होती है वह स्थावर जीव कहलाता है। स्थावर जीवों में जल, अग्नि, वायु, पृथ्वी तथा वनस्पति आते हैं। इन सभी में एकेन्द्रिय स्पर्श बोध होता है।२२ त्रस जीवों के चार प्रकार होते हैं- दो इन्द्रियवाले जीव, तीन इन्द्रियवाले जीव, चार इन्द्रियवाले जीव और पाँच इन्द्रियवाले जीव। दो इन्द्रिय प्राप्त जीवों को स्पर्श के साथ रस का भी बोध होता है। इनमें कृमि, जलौंका आदि की गिनती की जाती है। तीन इन्द्रिय प्राप्त जीवों को स्पर्श, रस तथा गन्ध का बोध होता है। इनमें चींटी, कुंथु, खटमल आदि आते हैं। चार इन्द्रिय प्राप्त जीवों को स्पर्श, रस, गन्ध तथा रूप का बोध होता है। इनमें भौरे, मक्खी, बिच्छ आदि आते हैं। पाँच इन्द्रिय प्राप्त जीवों को स्पर्श, रस, गन्ध, रूप तथा ध्वनि का बोध होता है। इनमें मनुष्य, पशु-पक्षी, देव, नारक इत्यादि आते हैं। मनुष्य को मन होता है, अत: इन्हें समनस्क कहते हैं तथा पशु, पक्षी आदि बिना मनवाले होते हैं, अत: इन्हें अमनस्क कहते हैं। जीव के जन्म-भेद
जीव की चार गतियाँ होती हैं-मनुष्य, तिर्यञ्च, देव और नारक तथा तीन जन्म होते हैं- सम्मूर्छन, गर्भ तथा उपपात। माता-पिता के बिना ही उत्पत्ति स्थान में स्थित औदारिक पुद्गलों को सर्वप्रथम शरीर रूप में परिणत करना सम्मूर्छन जन्म कहलाता है। उत्पत्ति स्थान में स्थित शुक्र और शोणित पुद्गलों को सर्वप्रथम शरीर के लिए ग्रहण करना गर्भजन्म कहलाता है। उत्पत्ति स्थान में स्थित वैक्रिय पुद्गलों को पहले-पहल शरीर रूप में परिणत करना उपपात जन्म कहलाता है।२३ जरायुज, अण्डज, पोतज आदि प्राणियों का गर्भजन्म होता है और नारक देवों का उपपात जन्म होता है। शेष सभी प्राणियों का सम्मूर्छन जन्म होता है। वादिदेव सूरि के विचार
वादिदेवसूरि ने संसारी आत्मा के स्वरूप को बताते हुए कहा है कि आत्मा प्रत्याक्षादि प्रमाणों से प्रमाणित, चैतन्यस्वरूप, परिणामी, कर्ता, साक्षात भोक्ता, स्वदेह परिमाण, प्रत्येक शरीर में भिन्न तथा पौद्गलिक कर्मों के साथ होता है।२४
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