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योग-साधना का आचार पक्ष
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करनेवाले, सक्रिय, छेदन - भेदन एवं कलह करनेवाले, दोषपूर्ण एवं प्राणों के घातक हो सकते हैं, जिन्हें मन से हटाना साधु के लिए आवश्यक है । १०८
सत्य
असत्य का परित्याग करना तथा यथाश्रुत वस्तु के स्वरूप का कथन सत्य कहलाता है। सत्य का भी पालन श्रमण को तीन योग और तीन करण से करना पड़ता है। इस महाव्रत की भी पाँच भावनाएँ हैं १०९ -
(१) विवेक विचारपूर्वक बोलना।
(२) क्रोध से बचना।
(३) लोभ से सर्वथा दूर रहना ।
(४) भय से अलग रहना।
(५) हास-परिहास से अलग रहना ।
अस्तेय
बिना दिये हुए पर - वस्तु का ग्रहण स्तेय कहलाता है, अतः मन, वचन और काय से चोरी न करना, चोरी न करवाना, चोरी करनेवालों का न ही अनुमोदन करना अस्तेय है। इस व्रत की भी पाँच भावनाएँ हैं
(१) अनुवीचि अवग्रहयाचन- सम्यक् विचार करके उपयोग के लिए वस्तु या स्थान के स्वामी या श्रावक से याचना करना अनुवीचि अवग्रहयाचन है।
(२) अभीक्ष्य अवग्रहयाचन- राजा, कुटुम्बपति आदि जिसकी भी जगह माँग कर ली गयी हो, ऐसे साधर्मिक आदि अनेक प्रकार के स्वामी हो सकते हैं। उनमें से जिसजिस स्वामी से जो-जो स्थान माँगने में विशेष औचित्य हो वही स्थान माँगना तथा एक बार देने के बाद मालिक ने वापस ले लिया हो, फिर भी रोगादि के कारण विशेष आवश्यकता होने पर उसके स्वामी से इस प्रकार बार-बार लेना कि उसको क्लेश न होने पाये, अभीक्ष्य अवग्रहयाचन है। ११०
(३) अवग्रहधारण- मालिक से माँगते समय अवग्रह का परिमाण निश्चित कर कोई वस्तु ग्रहण करना अवग्रहधारण है । १११
(४) साधर्मिक अवग्रहयाचन- साधु द्वारा अपने समानधर्मी साधु से आवश्यकता होने पर परिमित स्थान की याचना करना । ११२
(५) अनुज्ञापित पान - भोजन - विधिपूर्वक अन्नपानादि लाने के बाद गुरु को दिखाकर उनका अनुज्ञापूर्वक उपभोग करना अनुज्ञापित पान - भोजन है । ११३
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