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अहिंसा
जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन
सामान्यतया अहिंसा का अर्थ 'न हिंसा' या 'हिंसा विरोधिनी अहिंसा' किया जाता है। लेकिन जैन मतानुसार किसी भी जीव की तीन योग और तीन करण से हिंसा न करना अहिंसा है। १०३ तीन योग अर्थात् मन, वचन और काय तथा तीन करण यानी करना, करवाना और अनुमोदन करना। इसे इस प्रकार समझा जा सकता है
(१) मन से हिंसा न करना ।
(२) मन से हिंसा न करवाना।
(३) मन से हिंसा का अनुमोदन न करना ।
(१) वचन से हिंसा न करना ।
(२) वचन से हिंसा न करवाना।
(३) वचन से हिंसा का अनुमोदन न करना ।
(१) काय से हिंसा न करना ।
(२) काय से हिंसा न करवाना।
(३) काय से हिंसा का अनुमोदन न करना ।
इन नौ प्रकारों से प्राणी का घात न करना ही अहिंसा हैं। अहिंसा के पालन से मनुष्य में निर्भयता, वीरता, वात्सल्यता, क्षमा, दया आदि आत्मिक शक्तियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। आत्मिक बल के सामने सभी पाशविक आसुरी बल नतमस्तक हो जाते हैं। अहिंसा व्रत की पाँच भावनाएँ हैं
ईर्या समिति - आने-जाने, उठने-बैठने आदि प्रवृत्ति के लिए चर्या करते समय छोटे या बड़े जीव के प्रति क्लेशकारक प्रवृत्ति का बचाव करना ईर्या समिति है । १०४ भाषा समिति - बोलने के समय क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, भय आदि मुक्त वचन बोलकर हितमित पथ्य, सत्य और मधुर वचन बोलना भाषा समिति है। तात्पर्य है वाणी के समस्त दोषों से बचना | १०५
से
एषणा समिति – आहार, वस्त्र, शय्या आदि की पूर्ति के लिए उत्तेजित करनेवाली वस्तुओं के स्थान पर स्वास्थ्योपयोगी, सात्विक भोजन, वस्त्र एवं पात्र ग्रहण करना एषणा समिति है । १०६
आदान समिति रोजमर्रा की आवश्यकताओं की वस्तुओं के लेन-देन, उसके रख-रखाव आदि में सावधानी बरतना, ताकि कोई जीव मर न जाए आदान समिति है । १०७ मनः समिति मन में अनेक प्रकार के विचार आते हैं, वे सावद्यकारी,
आस्रव
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