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जैन एवं बौद्ध योग का तत्त्वमीमांसीय आधार
३. कर्म मूर्त है, क्योंकि वह सुख-दुःख का कारण होता है। भोजन आदि ग्रहण करने से हमें सुख तथा शस्त्र के आघात से दु:ख होता है। भोजन तथा शस्त्र मूर्त होते हैं। इसलिए कर्म भी मूर्त होता है। किन्तु भोजन अथवा शस्त्रादि से कर्म अधिक बलवान होता है। वह जीव के साथ चिपक जाता है।
४. इन्द्रियों से जो भी बोध प्राप्त होते हैं, वे सभी मूर्त होते हैं। अत: उनका कारण कर्म भी मूर्त तथा पौद्गलिक होता है। कर्म, आत्मा तथा शरीर
कर्म और आत्मा का सम्बन्ध अनादिकाल से चला आ रहा है, किन्तु यहाँ एक आशंका उत्पन्न होती है कि कर्म पौद्गलिक एवं मूर्त होता है तथा आत्मा अभौतिक एवं अमूर्त। फिर भी दोनों के बीच सम्बन्ध होता है। यह कैसे? जैन दर्शन के अनुसार योग कर्म और आत्मा को सम्बन्धित करता है। योग तीन प्रकार का है- मनसा, वाचा और कर्मणा। योग की प्रवृत्तियों के कारण ही कर्म आत्मा की ओर आकर्षित होता है और उससे चिपक जाता है। मुनि नथमल के शब्दों में-“अमूर्तज्ञान पर मूर्त मादक द्रव्य का असर होता है, वह अमूर्त के साथ मूर्त का सम्बन्ध हुए बिना नही हो सकता।" इससे जाना जाता है कि विकारी अमूर्त आत्मा के साथ मूर्त का सम्बन्ध होने में कोई आपत्ति नहीं आती।८
जिस प्रकार कर्म और जीव का सम्बन्ध अनादिकाल से चला आ रहा है उसी प्रकार कर्म और शरीर का सम्बन्ध भी अनादिकाल से चला आ रहा है। इन दोनों के बीच वही सम्बन्ध है जो बीज और अंकुर के मध्य होता है। बीज से अंकुर होता है तथा अंकुर विकसित होकर बीज पैदा करता है। इसी प्रकार कर्म के कारण शरीर होता है और शरीर के कारण कर्म होता है। कर्मबन्ध के हेतु
आत्मा और कर्म के सम्बन्ध के फलस्वरूप आत्मा में परिवर्तन होता है, जिसे बन्ध कहते हैं। आत्मा कर्म से सम्बन्धित होता है, किन्तु क्यों दोनों के बीच सम्बन्ध स्थापित होता है? इसके लिए दर्शनों में मतभेद है। बौद्ध दर्शन वासना या संस्कार को कर्मबन्ध का कारण बताता है। न्याय-वैशेषिक ने मिथ्याज्ञान को कर्मबन्ध का हेतु माना है। इसी तरह सांख्य ने यह माना है कि प्रकृति और पुरुष को अभिन्न समझने का ज्ञान कर्मबन्ध है। वेदान्त दर्शन में अविद्या को कर्मबन्ध का कारण बताया गया है। जैन दर्शन में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद,कषाय और योग को कर्मबन्ध का कारण स्वीकार किया गया है।
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