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पंचम अध्याय
योग-साधनाकाआचारपक्ष
योग-साधना का आधार आचार होता है, क्योंकि आचार से ही साधक के संयम में वृद्धि होती है, समता का विकास होता है। फलतः साधक आध्यात्मिक उँचाईयों को छू पाता है। योग के लिए आचार एक आवश्यक अंग है। हमारी भारतीय परम्परा में यह कहा गया है कि व्यक्ति का जैसा आचार होता है वैसा ही उसका विचार भी होता है। आचार
और विचार दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं, इसलिए इन दोनों के परिपालन से ही सम्यक् चारित्र का उत्कर्ष होता है। लेकिन जब तक मन वासनाओं से निवृत्त नहीं हो जाता तब तक न चित्त स्थिर हो सकता है, न धर्मध्यान हो सकता है और न योग ही सध सकता है। मन के कारण ही इन्द्रियाँ चंचल होती हैं, रोगादि प्रकृतियों की वृद्धि होती है तथा कर्मप्रकृतियों का बन्धन होता है। चंचल मन को सर्वथा स्थिर करना योग का प्रथम कार्य है, क्योंकि चंचल मन द्वारा किया गया कार्य चाहे पुण्य प्रकृति का हो या पाप प्रकृति का हो, दोनों मे ही संसार बन्धन होता है। इसलिए वासनाओं से विमुक्ति तथा ब्रह्मचर्य को योग में आवश्यक माना गया है। अत: सम्यक्-योग-साधना के लिए सर्वप्रथम आवश्यक हैचित्त की शुद्धता।
जैन परम्परा जैन परम्परा में सम्यक्-चारित्र को योग-साधना का मूल आधार माना गया है। योगशास्त्र में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्-चारित्र को मोक्ष का कारण माना गया है। इनमें चारित्र का स्थान प्रमुख है, क्योंकि चारित्र ज्ञान और दर्शन की सिद्धि का कारण है। सम्यक्-चारित्र के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि संसार के कारणभूत रागद्वेषादि की निवृत्ति के लिए कृत संकल्प विवेकी पुरुष का काय और वचन की बाह्य क्रियाओं से एवं आभ्यन्तर मानस क्रियाओं से विरक्त होकर स्वरूपावस्थिति प्राप्त करना सम्यक्-चारित्र है। चारित्र की दृढ़ता एवं सम्पन्नता के लिए जैन दर्शन मे विभिन्न व्रतों, क्रियाओं, विधियों, नियमों-उपनियमों का विधान किया गया है जिसके अन्तर्गत तप, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान आदि प्रमुख हैं। परन्तु ध्यान का स्थिरीकरण मन की स्थिरता पर निर्भर करता है। जिस साधक ने मन को अपने अधीन कर लिया उसके लिए संसार में कोई भी वस्तु ऐसी नहीं जिसे वश में नही किया जा सके। अत: मन को
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