________________
योग-साधना का आचार पक्ष
१५७
परिग्रहत्याग, अनुमतित्याग एवं उद्दिष्ट त्याग का वर्णन मिलता है।" दोनों परम्पराओं में प्रतिमा के प्रकारों को देखने से ऐसा लगता है कि दोनों में कोई विशेष अन्तर नहीं है। डा० मोहनलाल मेहता के शब्दों में- श्वेताम्बर व दिगम्बर सम्मत प्रथम चार नामों में कोई अन्तर नहीं है। सचित्त त्याग का क्रम दिगम्बर परम्परा में पाँचवाँ हैं जबकि श्वेताम्बर - परम्परा में सातवाँ हैं। दिगम्बराभिमत रात्रिमुक्तित्याग श्वेताम्बराभिमत पाँचवीं प्रतिमा नियम के अन्तर्गत समाविष्ट है। ब्रह्मचर्य का क्रम श्वेताम्बर परम्परा में छठा है, जबकि दिगम्बरपरम्परा में सातवाँ है। दिगम्बर परम्परा का अनुमतित्याग श्वेताम्बर सम्मत उद्दिष्टभक्तत्याग केही अन्तर्गत समाविष्ट है, क्योंकि इसमें श्रावक उद्दिष्टभक्त ग्रहण करने के साथ ही किसी प्रकार के आरम्भ का समर्थन भी नहीं करता । श्वेताम्बराभिमत श्रमणभूतप्रतिमा ही दिगम्बराभिमत उद्दिष्टत्याग प्रतिमा है । ९"
९०
दर्शन - प्रतिमा - अध्यात्ममार्ग की यथार्थता के सम्बन्ध में दृढ़ निष्ठा एवं श्रद्धा का होना दर्शन - प्रतिमा है । रत्नकरण्डक श्रावकाचार के अनुसार इस प्रतिमा के धारक को सर्वगुणविषयक प्रीति उत्पन्न होती है, दृष्टि की विशुद्धता प्राप्त होती है और वह पंचगुरुओं के चरणों में जाकर दृष्टि दोषों का परिहार करता है । ९९
व्रत- प्रतिमा - गृहस्थ जीवन के पाँच अणुव्रतों, तीन गुणव्रतों का निर्दोष रूप से पालन करना व्रत- प्रतिमा है । वसुनन्दि श्रावकाचार में कहा भी गया है कि श्रावक साधक अणुव्रतों, गुणव्रतों, शिक्षाव्रतों आदि को सम्यक् रूपेण धारण कर उनका विधिवत पालन करता है । ९२
सामायिक प्रतिमा समत्व के लिए किया जानेवाला प्रयास सामायिक कहलाता है। श्रावक साधक को इस सामायिक प्रतिमा में नियमित रूप से तीनों संध्याओं अर्थात् प्रातः, मध्याह्न और सायंकाल में मन, वचन और कर्म से निर्दोष रूप में समत्व की आराधना करनी होती है । ९३
-
प्रोषधोपवास- प्रतिमा - प्रत्येक माह की अष्टमी और चतुर्दशी में गृहस्थी के समस्त क्रिया-कलापों से अवकाश पाकर उपवास सहित शुद्ध भावना के साथ आत्मसाधना में रत रहना प्रोषधोपवास- प्रतिमा है । ९४
नियम- प्रतिमा - इस प्रतिमा में पूर्वोक्त प्रतिमाओं का निर्दोष पालन करते हुए पाँच विशेष नियमों का व्रत लिया जाता है, जो इस प्रकार है
(१) स्नान नहीं करना ( २ ) रात्रि भोजन नहीं करना (३) धोती की एक लांग नहीं लगाना (४) दिन में ब्रह्मचर्य का पालन करना और रात्रि में मैथुन की मर्यादा निश्चित करना तथा (५) अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्व के दिन रात्रि - पर्यन्त देहासक्ति त्यागकर कायोत्सर्ग करना।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org