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जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन
यथोचि
कुछ घंटों या दिनों के लिए नियत करना देशवकाशिक व्रत कहलाता है । ८३ इसके भी पाँच अतिचार हैं
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(१) आयनन प्रयोग - मर्यादित क्षेत्र के बाहर से वस्तु लाना या मँगवाना। (२) प्रेष्य प्रयोग-मर्यादित क्षेत्र के बाहर वस्तु भेजना या ले जाना । (३) शब्दानुपात - निर्धारित क्षेत्र के बाहर किसी को खड़ा देखकर शब्द संकेत करना । (४) रूपानुपात - हाथ, मुँह, सिर आदि से संकेत करना ।
(५) पुङ्गलप्रक्षेप - बाहर खड़े हुए व्यक्ति को अपना अभिप्राय जताने के लिए कंकड़ आदि फेंकना ।
अतिथिसंविभाग व्रत अपने निमित्त बनाई हुई अपने अधिकार की वस्तु का अतिथि के लिए समुचित विभाग करना अतिथिसंविभाग है। योगशास्त्र में कहा गया हैत्यागियों, मुनियों आदि को खानपान, रहन-सहन आदि वस्तुयें देकर स्वयं खान-पान करना अतिथिसंविभाग व्रत है । ८४ अन्य व्रतों की भाँति इसके भी पाँच अतिचार हैं, ८५ जिनसे साधक को बचना चाहिए।
(१) सचित्त निक्षेप - सचित्त पदार्थों से आहारादि को ढ़कना ताकि श्रमण आदि उसे ग्रहण न कर सके ।
(२) सचित्तापिधान- आहारादि वस्तु को सचित्त वस्तु के ऊपर रख देना। (३) कालातिक्रम- भिक्षा का समय बीत जाने पर भोजन बनाना । (४) परव्यपदेश- न देने की भावना से अपनी वस्तु को दूसरों की बताना । (५) मात्सर्य - ईर्ष्यापूर्वक दान देना मात्सर्य है।
ग्यारह प्रतिमाएँ
प्रतिमाएँ आत्म-विकास की क्रमिक सोपान हैं, जिनके सहारे श्रावक अपनी शक्ति के अनुरूप मुनि दीक्षा ग्रहण करने की स्थिति में पहुँचता है। प्रतिमा का अर्थ होता है - प्रतिज्ञाविशेष, व्रत विशेष, तप विशेष अथवा अभिग्रह विशेष | ६ जैनागमों में प्रतिमाओं की संख्या ग्यारह मानी गयी हैं।" परन्तु श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं में प्रतिमा के विषय में अन्तर देखने को मिलता है। श्वेताम्बर परम्परा में प्रतिमाओं के नाम क्रमश: इस प्रकार मिलते हैं- दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषधोपवास, नियम, ब्रह्मचर्य, सचित्त त्याग, आरम्भ त्याग, प्रेष्य परित्याग, उद्दिष्ट त्याग एवं श्रमणभूत। जबकि दिगम्बर परम्परा में दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित्त त्याग, रात्रिमुक्ति त्याग, ब्रह्मचर्य, आरम्भत्याग,
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