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योग-साधना का आचार पक्ष
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है कि मैं स्वपत्नी संतोषव्रत ग्रहण करता हूँ... नामक पत्नी के अतिरिक्त अवशिष्ट मैथुन का त्याग करता हूँ।४२ अमितगति श्रावकाचार में कहा गया है कि श्रावक अपनी पत्नी के अतिरिक्त अन्य सभी स्त्रियों को माँ, बहन एवं बेटी के रूप में देखे । ४३ इन सबके अतिरिक्त और भी कई ग्रन्थों में इस व्रत का प्रतिपादन किया गया है। जैसे- रत्नकरण्डक श्रावकाचार, ४४ सर्वार्थसिद्धि, ४५ पुरुषार्थसिद्धयुपाय, ४६ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा, ४७ धर्मामृत " (सागार) आदि।
अन्य व्रतों की भाँति स्वदार संतोष के भी पाँच अतिचार बतलाये गये हैं, जिनसे श्रावक को बचना चाहिए ४९
(१) इत्वरिक - परिगृहीता गमन इत्वरिक का अर्थ होता है - अल्पकाल, परिग्रहण का अर्थ होता है - स्वीकार करना, गमन का अर्थ होता है - काम - भोग सेवन, अर्थात् अल्पकाल के लिए स्वीकार की गयी स्त्री के साथ काम भोग का सेवन करना । श्रावक के लिए ऐसे मैथुन का निषेध किया गया है।
(२) अपरिगृहीता गमन वह स्त्री जिस पर किसी प्रकार का अधिकार न हो अर्थात् वेश्या, कुल्टा, वियोगिनी आदि का उपभोग करना अपरिगृहीता गमन कहलाता है। (३) अनंगक्रीड़ा प्राकृतिक रूप से काम-वासनाओं की पूर्ति न करके अप्राकृतिक रूप से वासना की पूर्ति करना अनंगक्रीड़ा कहलाता है । यथा - हस्तमैथुन, समलैंगिक मैथुन, कृत्रिम साधनों द्वारा कामाचार का सेवन करना आदि।
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(४) पर विवाहकरण - कन्यादान में पुण्य समझकर अथवा रागादि के कारण दूसरों के लिए लड़के-लड़कियाँ ढूँढ़ना, उनकी शादियाँ कराना आदि कर्म पर विवाहकरण अतिचार है। तात्पर्य यह है कि गृहस्थ साधक को स्वसंतान एवं परिजनों के अतिरिक्त अन्य व्यक्तियों के विवाह सम्बन्ध कराने का निषेध है।
(५) काम - भोग तीव्राभिलाषा कामरूप एवं भोगरूप विषयों में अत्यन्त आसक्ति रखना अर्थात् इनकी अत्यधिक आकांक्षा करना कामयोग तीव्राभिलाषा अतिचार है। इच्छा - परिमाण
इच्छायें अनन्त हैं। इन अनन्त इच्छाओं की मर्यादा निर्धारित करना या नियंत्रित करना ही इच्छा-परिमाण है, अर्थात् गृहस्थ को परिग्रहासक्ति से बचने के लिए परिग्रह की सीमा रेखा निश्चित की गयी है। धन-धान्यादि के संग्रह से ममत्व घटाना अथवा लोभ कषाय को कम करके संतोषपूर्वक वस्तुओं का आवश्यकता भर उपयोग करना परिग्रह परिमाणव्रत है । ५° मर्यादा का बन्धन संकल्प में ही नहीं होना चाहिए बल्कि व्यवहार में भी उसका प्रयोग होना चाहिए, क्योंकि वस्तु-त्याग कथन निरर्थक है।
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