________________
जैन एवं बौद्ध योग का तत्त्वमीमांसीय आधार
१३१
दोषों का मूल बताया है। परन्तु भगवान् बुद्ध के अनात्मवाद से यह नहीं समझना चाहिए कि उन्होंने आत्मा की सत्ता का सर्वथा निषेध किया है। उन्होंने नित्य, शाश्वत, ध्रुव और अपरिवर्तनशील आत्मा की सत्ता का निषेध करते हुए कहा है कि आत्मा कोई नित्य कूटस्थ वस्तु नहीं है, बल्कि खास कारणों से, स्कन्धों के योग से उत्पन्न एक शक्ति है जो अन्य बाह्य भूतों की भाँति उत्पन्न एवं विलीन होती रहती है। उन्होंने दीपशिखा का उदाहरण देकर इसे स्पष्ट किया है। हम समझते हैं कि एक दीपक रातभर जलता रहता है, परन्तु वस्तुस्थिति यह होती है कि पहले प्रहर की दीपशिखा जो समाप्त हो चुकी रहती है, से दूसरे प्रहर की दीपशिखा भिन्न होती है। इस प्रकार दीपशिखा प्रतिक्षण बदलती रहती है, पर हमें एक-सी प्रतीत होती है। ठीक यही बात आत्मा के साथ लागू होती है।
आत्मा, जीव, सत्ता, पुद्गल, मन, चित्त, विज्ञान आदि शब्द एक-दूसरे के पर्यायवाची तथा समानार्थक हैं। बौद्धानुयायी आत्मा के लिए विशेष शब्द 'सन्तान' शब्द का प्रयोग करते हैं। यद्यपि बुद्ध ने आत्मा की स्वतंत्र एवं नित्य सत्ता को स्वीकार नहीं किया है, फिर भी उन्होंने मानसिक वृत्तियों को सहर्ष स्वीकार किया है। हमारी मानसिक वृत्तियाँ जैसे-आँखें कोई खट्टी चीज देखती हैं और जिह्वा से पानी टपकने लगता है, नाक दुर्गन्ध सूंघती है और हाथ नाक पर पहुँच जाता है। जबकि हम जानते हैं कि आँख और जिह्वा एक-दूसरे से भिन्न हैं फिर भी वे किसी न किसी रूप में मिले हुए हैं, एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। अत: कहा जा सकता है कि दोनों को मिलानेवाला कोई तीसरा है और वह है-मन। मन एवं मानसिक वृत्तियों से ही आत्मा का पता चलता है। इस प्रकार बुद्ध ने आत्मा की व्यावहारिक सत्ता को स्वीकार किया है जो रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार तथा विज्ञान आदि पंचस्कन्धों का समुदायमात्र है। इन्हीं पंचस्कन्धों को हम आत्मा के नाम से पुकारते हैं। रूप के अन्तर्गत पंच ज्ञानेन्द्रिय, पंच विज्ञप्ति और इनसे सम्बन्धित विषय आते हैं। सुख-दुःख एवं उदासीन भाव वेदना के अन्तर्गत आते हैं। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि प्रिय वस्तु के संसर्ग से सुख तथा अप्रिय वस्तु के संसर्ग से दुःख आदि की प्राप्ति से चित्त की जो विशेष अवस्था होती है, वही वेदना है। किसी वस्तु के विषय में जो निश्चित ज्ञान होता है उसके गुणों के आधार पर हम उसका नामकरण करते हैं, वही संज्ञा है। संज्ञा का कार्य संज्ञानन या पहचान कराना है। हमें नील, पीत, रक्त, श्वेत आदि रूप से वस्तु का संज्ञानन होता है, यही संज्ञा है। संस्कार के अन्तर्गत मानसिक शक्तियाँ आती हैं जो रूप, वेदना और संज्ञा के बीच सामंजस्य उत्पन्न करती हैं। संस्कार के तीन प्रकार हैं- काय-संस्कार, वाक्-संस्कार और चित्त-संस्कार। कायिक धर्म, आश्वास-प्रश्वास
आदि काय-संस्कार है। वितर्क, विचार ही वचन या वाक्-संस्कार है। संज्ञा और वेदना चित्त-संस्कार कहलाती है। विज्ञान में बाह्य एवं आभ्यंतर अर्थात् बाह्य वस्तुओं का ज्ञान
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org