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जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन
कायिक कर्म चेतयित्वा कर्म कहे गये हैं।६८ ये शुभ तथा अशुभ या कुशल और अकुशल दोनों हो सकते हैं।
कुशल कर्म - अभिधम्मत्थसंगहो में -१. श्रद्धा २. अप्रमत्तता यानी स्मृति ३. पाप-कर्म के प्रति लज्जा ४. पाप-कर्म के प्रति भय ५. अलोभ यानी त्याग ६. अद्वेष अर्थात् मैत्री ७. समभाव ८. शरीर का हलकापन ९. मन की मृदुता १०. शरीर की मृदुता ११. मन की सरलता, शरीर की सरलता आदि को कुशल चैतसिक कर्म कहा गया है।६९
अकुशल कर्म - कायिक, वाचिक और मानसिक आधार पर दस प्रकार के पापों या अकुशल कर्मों का वर्णन बौद्ध साहित्य में मिलता है
१. प्राणातिपात-हिंसा,२. अदत्तादान-चोरी, ३. कामेसुमिच्छाचार-कामभोग सम्बन्धी दुराचार, ४. मृषावाद-असत्य भाषण, ५. पिसुनावाचा-पिशुन वचन, ६. फरुसावाचाकठोर वचन, ७. सम्फलाप-व्यर्थ आलाप, ८. अभिज्जा-लोभ, ९. व्यापाद-मानसिक हिंसा या अहित चिन्तन, १०. मिच्छादिट्ठी-मिथ्या दृष्टिकोण ।
इस प्रकार बौद्ध परम्परा के कर्म सिद्धान्त में कर्म शब्द का अर्थ क्रिया की अपेक्षा ज्यादा विस्तृत है। उसमें क्रिया, क्रिया के उद्देश्य और उसके फल-विपाक तीनों ही सनिहित हैं। जैसा कि आचार्य नरेन्द्रदेव ने भी लिखा है कि केवल चेतना (आशय) और कर्म ही सकल कर्म नहीं हैं। कर्म के परिणाम का भी विचार करना होगा। कर्मों की अवस्था ___ कर्म की अवस्थाओं का निरूपण करते हुए उसके चार प्रकार बताये गये हैं
१. जनक- यह कर्म दूसरा जन्म करवाने में सहायक होता है। २. उपस्थम्भकयह दूसरे कर्म का फल देने में सहायक होता है। उपपीलक- यह दूसरे कर्म की शक्ति को क्षीण करता है। उपघातक- यह दूसरे कर्म का विपाक रोककर अपना फल देता है। महाकर्म विभंग में भी कर्म एवं उसके फल देने की योग्यता पर विचार किया गया है। कर्म की कृत्यता और उपचितता के सम्बन्ध को लेकर कर्म का चतुर्विध वर्गीकरण प्रस्तुत किया गया है७२, जो इस प्रकार है
१. कृत नहीं, पर उपचति- इसके अन्तर्गत वे कर्म आते हैं जो कार्य रूप में परिणत नहीं हो पाते, किन्तु वासनाओं के तीव्र आवेग में आकर कर्म-संकल्प ले लिये गये हों। यथा- किसी व्यक्ति ने क्रोध के वशीभूत होकर किसी को मारने का संकल्प ले लिया हो, लेकिन वह उसे कार्यान्वित न किया हो।
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