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जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन तथा 'अहं' के ज्ञान का समावेश होता है।
उपर्युक्त पाँच स्कन्धों के संघात के कारण ही मनुष्य या आत्मा का बोध होता है। संघात् रूपी आत्मा के विषय में भदन्त नागसेन ने राजा मिलिन्द को रथ का उदाहरण देकर बहुत ही सुगमता से समझाया है, जो इस प्रकार है- राजा मिलिन्द ने भदन्त नागसेन से पूछा कि आपके ब्रह्मचारी आपकों नागसेन नाम से पुकारते हैं, तो यह नागसेन क्या है? क्या ये केश नागसेन है? क्या रोयें नागसेन हैं? इसी तरह तमाम सवाल राजा मिलिन्द ने नागसेन से किये। जिसके जवाब में नागसेन ने संघातवाद को सामने रखते हुए राजा से पूछा-राजन् क्या आप पैदल चलकर आये हैं या रथ पर सवार होकर ? राजा ने उत्तर दिया-भन्ते। मैं पैदल नहीं रथ पर आया हूँ। तब भदन्त ने नागसेन से पूछा-रथ क्या है? क्या धुरी रथ है? क्या चक्के रथ हैं? क्या रस्सी रथ है आदि-आदि। सभी का जवाब राजा ने नकारात्मक रूप में दिया। तब नागसेन ने कहा-राजन! जिस प्रकार चक्का, धुरी आदि अलग-अलग रूप में रथ नहीं हैं, बल्कि सभी का समन्वित रूप रथ है, उसी प्रकार न तो रूप आत्मा है, न वेदना आदि ही, बल्कि पंचस्कन्धों का संघात् ही आत्मा है।५६ इसी तरह मेरे केश इत्यादि के आधार पर केवल व्यवहार के लिए 'नागसेन ऐसा एक नाम कहा जाता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि बौद्धों ने आत्मा की व्यावहारिक सत्ता को स्वीकार किया है।
___ अब प्रश्न उठता है कि क्या बौद्धों ने आत्मा को नित्य माना है या अनित्य? बौद्धमत के अनुसार यह तो सत्य है कि आत्मा अनित्य है, क्योंकि वे क्षणिकवाद में विश्वास रखते हैं। क्षणिकवाद की यह मान्यता है कि प्रत्येक वस्तु क्षण-क्षण बदल रही है। अत: मन, जीव, आदि भी क्षण-क्षण बदलते रहते हैं। परन्तु बौद्धों ने संतति-प्रक्रिया को नित्य माना है। संतति-प्रक्रिया अर्थात् कार्य-कारण की प्रक्रिया। उनका कहना है कि मन क्षणिक है, पर परवर्ती मन का कारण भी है। जिस प्रकार माता-पिता की बहुत-सी बातें पुत्र-पौत्रों में आती हैं, उसी प्रकार पूर्वमन अपने अनुभवों का बीज या संस्कार अगले मन के लिए छोड़ जाता है।
दूसरा प्रश्न यह है कि बौद्ध मतानुसार आत्मा कर्ता-भोक्ता है या नहीं। यदि हम संतति-प्रक्रिया की दृष्टि से देखें तो जीव या आत्मा कर्ता एवं भोक्ता दोनों हैं, क्योंकि एक नामरूप से दूसरे नामरूप की उत्पत्ति होती है। संयुक्तनिकाय में कहा गया है कि पूर्वकालीन नामरूप से उत्तरकालीन नामरूप की उत्पत्ति हुई। अत: दूसरा जो पहले से उत्पन्न हुआ, पहले नामरूप के किये कर्मों को भोगता है।५७ परन्तु धम्मपद में कुछ और ही कहा गया है, जिससे यह प्रतीत होता है कि कर्ता और भोक्ता एक ही जीव है। कहा गया है- पाप
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