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चतुर्थ अध्याय
जैन एवं बौद्ध योग का तत्त्वमीमांसीय आधार
दर्शन के पमुख तीन पक्ष होते हैं- तत्त्वमीमांसा, ज्ञानमीमांसा और आचारमीमांसा। ये एक-दूसरे के पूरक तथा अनुकूल होते हैं। इनकी अनुकूलता से ही ज्ञात होता है कि ये एक-दूसरे को प्रभावित भी करते हैं। यदि ऐसा नहीं हो तो कोई भी दर्शन आत्मघाती सिद्ध होगा। इस बात की स्पष्टता के लिए भारतीय दर्शन की कुछ शाखाओं को देखा जा सकता है
चार्वाक दर्शन में सिर्फ भौतिक तत्त्वों को ही मान्यता प्राप्त है। इसमें ईश्वर आदि आध्यात्मिक तत्त्व नहीं हैं। इसमें आध्यात्मिक तत्त्वों को अस्वीकार किया गया है। यह केवल प्रत्यक्ष प्रमाण को ही मानता है, क्योंकि भौतिक तत्त्वों का प्रत्यक्षीकरण होता है। इतना ही नहीं इसका यह भी मानना है कि शरीर के नष्ट होते ही उसके साथ रहनेवाली चेतना समाप्त हो जाती है, शेष कुछ नहीं रह जाता। अत: वर्तमान जन्म के अतिरिक्त पूर्वजन्म एवं पुनर्जन्म का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। मरनेवाले व्यक्ति के लिए न भोक्ष, न स्वर्ग और न नरक होता है। जो कुछ है वह वर्तमान जीवन ही है, वर्तमान शरीर ही है। इस प्रकार चार्वाक दर्शन अपनी आचारमीमांसा के क्षेत्र में सुखवादी तथा तत्त्वमीमांसा के क्षेत्र में भौतिकवादी है। इसका मानना है कि जब तक जीओ, सुखपूर्वक जीओ, ऋण लेकर भी घी मिल सके तो बिना संकोच के खाओ ताकि शरीर पुष्ट हो, स्वस्थ हो और तुम्हें दैहिक सुख मिले, क्योंकि शरीर नष्ट हो जानेवाला है, इसका फिर आना-जाना संभव नहीं है। चूंकि चार्वाक दर्शन की तत्त्वमीमांसा भौतिकवादी है इसलिए उस पर आधारित प्रमाणमीमांसा प्रत्यक्षवादी तथा आचारमीमांसा सुखवादी है। चित्त एवं उसकी वृत्तियों पर चिन्तन नहीं हुआ है।
पातंजल योग की तत्त्वमीमांसीय व्याख्या में चित्त की वृत्तियाँ होती हैं- क्लिष्ट तथा अक्लिष्ट । क्लिष्ट वृत्तियाँ अविद्या तथा अज्ञान उत्पन्न करती हैं, जिससे बंधन होता है। अत: आचारमीमांसा में योग को प्रधानता देते हुए कहा गया है- 'योगश्चित्तवृत्ति निरोधः । अर्थात् चित्तवृत्ति को रोकना योग है। योग से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है।
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