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जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन
द्रव्य के भेद
द्रव्य के वर्गीकरण को लेकर विद्वानों में मतैक्य नहीं है, परन्तु सभी विद्वान् मुख्य रूप से द्रव्य के दो भेद मानते हैं- जीव और अजीव।१२ चैतन्य धर्मवाला जीव कहलाता है तथा उसके विपरीत धर्मवाला अजीव। इस तरह सम्पूर्ण लोक दो भागों में विभक्त हो जाता है। चैतन्य लक्षणवाला द्रव्य-विशेष जीव-विभाग के अन्तर्गत आ जाता है और जिसमें चैतन्यता नहीं है उसका समावेश अजीव विभाग के अन्तर्गत हो जाता है। परन्तु जीव-अजीव के भेद-प्रभेद करने पर द्रव्य के छः भेद हो जाते हैं। जीव-द्रव्य अरूपी है अर्थात् जिन्हें इन्द्रियों से न देखा जा सके वह अरूपी है, अत: जीव या आत्मा अरूपी है। अजीव के भी दो भेद हैं- रूपी और अरूपी । रूपी अजीव द्रव्य के अन्तर्गत पुद्गल आ जाता है। अरूपी अजीव द्रव्य के पुन: चार प्रकार हैं- धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, अद्धासमय (काल)। इस प्रकार द्रव्य के कुल छ: भेद हो जाते हैं - जीव, पुद्गल, अधर्म, धर्म, आकाश और काल।२२ इनमें प्रथम पाँच अस्तिकाय द्रव्य कहलाते हैं तथा काल अनस्तिकाय है। जीवद्रव्य
तत्त्वार्थसूत्र में जीव का लक्षण बताते हुए कहा गया है कि उपयोग जीव का लक्षण है।१४ उपयोग का अर्थ होता है-बोधगम्यता। अर्थात् जीव में बोधगम्यता होती है और बोधगम्यता वहीं देखी जाती है जहाँ चेतना होती है। अत: कहा जा सकता है कि चेतना जीव का लक्षण है। यदि उपयोग शब्द का व्यावहारिक लक्षण लें तो भी यही ज्ञात होता है कि चेतना जीव का लक्षण है। जिसमें चेतना नहीं होगी वह भला किसी चीज की उपयोगिता को क्या समझेगा? उपयोग में ज्ञान और दर्शन सन्निहित होते हैं।१५ उपयोग के दो प्रकार हैं- ज्ञानोपयोग तथा दर्शनोपयोग। ज्ञान सविकल्पक होता है। दर्शन निर्विकल्पक होता है। अत: पहले दर्शन होता है फिर इसका समाधान ज्ञान में होता है अर्थात् विषयवस्तु क्या है? यह प्रश्न उपस्थित होता है, तत्पश्चात् समाधान। ज्ञानोपयोग
ज्ञानोपयोग के दो प्रकार हैं-स्वभाव ज्ञान तथा विभाव ज्ञान।१६ जिस ज्ञान का सम्बन्ध आत्मा से होता है, जिसे इन्द्रिय की आवश्यकता नहीं होती उसे स्वभाव ज्ञान कहते हैं। इसे ही केवलज्ञान भी कहते हैं। इस ज्ञान में मिथ्यात्व की कोई भी आशंका नहीं रहती। यह ज्ञान की पूर्णता की स्थिति होती है। विभाव ज्ञान पुन: दो भागों में विभाजित होता हैसम्यक्-ज्ञान तथा मिथ्याज्ञान। सम्यक्-ज्ञान के निम्नलिखित चार भेद हैं -
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