________________
९६
जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन
द्वारा अपने पाप नष्ट कर डाले हैं, उन्होंने भावी योगियों के कल्याण के लिए जो बात कही है वह मोहरूपी अंधकार को मिटाने के लिए दीपक के सदृश है। उन ज्ञानीजनों ने कहा है- वादी और प्रतिवादी तर्क-वितर्क द्वारा कभी भी तत्त्व के अन्तिम निर्णय तक नहीं पहुँच पाते । उनकी स्थिति तेली के कोल्हू के बैल जैसी है। बैल कोल्हू के चारों ओर चक्कर लगाता रहता है, पर वह रहता वहीं का वहीं है।२७ वे मानते थे कि वाद-विवाद से न सत्य प्राप्त होता है और न साधना ही सफल होती है।
इस ग्रन्थ पर ‘सद्योगचिन्तामणि' नामक स्वोपज्ञवृत्ति है, जिसका श्लोक प्रमाण ३६२० है। षोडशकप्रकरण
१६-१६ पद्यों के १६ प्रकरण होने से इसका नाम षोडशक है। इस ग्रन्थ में योगसाधना द्वारा क्रमश: स्वानुभूतिरूप परमानन्द की प्राप्ति का निरूपण किया गया है। इस ग्रन्थ पर योगदीपिका नामक एक वृत्ति भी उपलब्ध होती है, जिसके रचनाकार यशोविजय गणि जी महाराज हैं। इस ग्रन्थ के चौदहवें प्रकरण में योग-साधना के बाधक तत्त्वों का वर्णन किया गया है, जो इस प्रकार है- खेद, उद्वेग, क्षेप, उत्थान, भ्रान्ति, अन्यमुद्, रुग्र
और आसंग-ये आठ चित्त-दोष हैं। इसी प्रकार सोलहवें प्रकरण में इन आठ दोषों के प्रतिपक्षी तत्त्वों का उल्लेख आया है, जो निम्न है - अद्वेष, जिज्ञासा, शुश्रुषा, श्रवण, बोध, मीमांसा, प्रतिपत्ति और प्रवृत्ति। ये चित्त के गुण हैं।
आत्मानुशासन
इस ग्रन्थ की रचना आचार्य गुणभद्र ने की है। इसकी भाषा संस्कृत है और यह श्लोकों के रूप में निबद्ध है। श्लोकों वाली यह वृत्ति योगाभ्यास की पूर्वपीठिका है। इसमें बताया गया है कि मन को बाह्य विषयों से हटाकर आत्मध्यान की ओर प्रेरित करना चाहिए। इस ग्रन्थ का रचना-काल ई० की ९वीं शताब्दी का मध्य माना जाता है। इस ग्रन्थ के टीकाकार एवं अंग्रेजी अनुवादक के रूप में जे०एल० जैनी का नाम आता है। तत्त्वानुशासन
___ इसे ध्यानशास्त्र के नाम से भी जाना जाता है। इसकी रचना रामसेनाचार्य जिनका समय विक्रम की १०वीं शताब्दी माना जाता है.८, के द्वारा हुई है। इसका प्रतिपाद्य विषय मुख्य रूप से ध्यान है और साथ ही इसमें ध्यान के नैमित्तिक एवं सहायक तत्त्वों का
रेचन भी किया गया है। ध्यान द्वारा व्यवहार तथा निश्चय दोनों प्रकार के मोक्षमार्ग सिद्ध
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org