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योग की अवधारणा : जैन एवं बौद्ध
बाह्य प्रज्ञा - दूसरे के स्कन्धों अथवा बाह्य वृक्ष, पर्वत आदि को लेकर प्रारम्भ की गयी प्रज्ञा बाह्य अभिनिवेशवाली प्रज्ञा है।
अध्यात्म- बाह्य प्रज्ञा - दूसरों के स्कन्धों को लेकर तथा बाह्य वृक्ष,पर्वत आदि रूपों को लेकर प्रारम्भ की गयी प्रज्ञा अध्यात्म बाह्य अभिनिवेशवाली प्रज्ञा कहलाती है।१९०
___ इस प्रकार बौद्धधर्म में साधनापरक तीन शिक्षायें दी गयी हैं जो आर्य अष्टांगिक मार्ग के ही रूप हैं। यही योग-साधना का मार्ग है। शील, समाधि और प्रज्ञा बौद्ध योगसाधना के तीन सोपान हैं जिनमें शील को स्रोतापन तथा सकृदागामी होने का साधन कहा गया है। समाधि को अनागामी और प्रज्ञा को अर्हत् होने का साधन बतलाया गया है। किन्तु सम्पूर्ण दु:ख के निरोध के लिए योगी को शीलसम्पन्न होकर समाधि द्वारा चित्त को एकाग्र करके प्रज्ञा से सांसारिक वस्तुओं का अनित्य, दुःख एवं अनात्म रूप ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है। विसुद्धिमग्गो में शील, समाधि और प्रज्ञा को कल्याणमय कहा गया है। चूँकि शीलसम्पन्न व्यक्ति कभी भी अपने किये हुए कार्य का स्मरण करके चिन्तित नहीं होता, समाधि से ऋद्धि-विद्य आदि गुणों की उपलब्धि होती है तथा प्रज्ञा से व्यक्ति में समताभाव की प्राप्ति होती है, इसलिए ये तीनों कल्याणमय है।
शमथ-भावना शमथ एवं विपश्यना दोनों ही समाधि के प्रकार माने जाते हैं, क्योंकि शमथ को लौकिक समाधि कहा गया है और विपश्यना को लोकोत्तर समाधि।१९१ शमथ का अर्थ होता है-पाँच नीवरणों का शमन करना या उपशम करना। शील में प्रतिष्ठित होकर चित्त की एकाग्रता के लिए जिस योग-साधना को अपनाया जाता है उसे शमथ भावना कहते हैं। इस भावना से जब चित्त के कामच्छन्द, व्यापाद, स्त्यान, मिद्ध-औद्धत्य-कौकृत्य
और विचिकित्सा आदि पाँच नीवरण शान्त हो जाते हैं और चित्त एकाग्र हो जाता है तथा योगी में प्रथम ध्यान के अंगों (वितर्क, विचार, प्रीति, सुख एवं एकाग्रता) का उत्पाद होता है, तत्पश्चात् वह द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ ध्यानों को प्राप्त करता है। चारों ध्यानों का आलम्बन रूप होता है, अतः इन्हें रूप ध्यान कहा जाता है। रूप ध्यान में दोषों को देखकर साधक अरूप ध्यान की ओर अग्रसर होता है। शमथ-भावना को करनेवाला साधक विभिन्न कर्मस्थानों में से किसी एक कर्मस्थान को आलम्बन बनाकर चित्त की एकाग्रता प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। ऐसे तो कर्मस्थान बहुत हैं पर यहाँ कर्मस्थान से अभिप्राय है- योग से सम्बन्धित कर्म। अत: योग-भावना की ओर प्रवृत्ति के कारण को कर्मस्थान कहा गया है। शमथ कर्मस्थानों की संख्या-४०(चालीस) है, यथा-दस
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