________________
योग की अवधारणा : जैन एवं बौद्ध
४९
सम्यक् दृष्टि दृष्टि का अर्थ होता है - ज्ञान। सत्कार्य के लिए ज्ञान की भित्ति का होना आवश्यक माना गया है, क्योंकि विचार की भित्ति पर ही आचार खड़ा होता है। इसीलिए अष्टांगिक आचार-मार्ग में सम्यक् दृष्टि को प्रथम स्थान दिया गया है। अविद्या के कारण हम ऐसा समझते हैं कि मनुष्य अमर है, संसार सत्य है; किन्तु यह हमारी मिथ्या दृष्टि है। इस मिथ्या दृष्टि को सही ढंग से समझना अर्थात् आत्मा और जगत के अस्तित्व के सम्बन्ध में सही ज्ञान प्राप्त करना तथा आर्यसत्य के प्रति विश्वास सम्यक्दृष्टि है।१३२ मज्झिमनिकाय के सम्मादिठ्ठिसुत्त १३३ में कहा गया है - दुराचरण को, दुराचरण के मूल कारण को, सदाचरण को तथा सदाचरण के मूल कारण को पहचान लेना ही सम्यक् - दृष्टि है। दुराचरण एवं सदाचरण अभिप्राय दृष्टि से यहाँ कर्म के दो भेद माने गये हैं अकुशल एवं कुशल । इन कर्मों का विवरण निम्न प्रकार है
-
कायिक कर्म
वाचिक कर्म
मानसिक कर्म
अकुशल
प्राणातिपात अर्थात् हिंसा
अदत्तादान अर्थात् चोरी मिथ्याचार अर्थात् व्यभिचार . मृषावचन अर्थात् झूठ पिशुनवचन अर्थात् चुगली परूषवचन अर्थात् कटुवचन सम्प्रलाप अर्थात् बकवास
अभिध्या अर्थात् लोभ
{ मिथ्यादृष्टि अर्थात् झूठी धारणा
Jain Education International
कुशल
अहिंसा
अचौर्य
अव्यभिचार
अमृषावचन अपिशुनवचन
अकटुवचन
असम्प्रलाप
अलोभ
अप्रतिहिंसा
अमिथ्यादृष्टि
दुराचरण अर्थात् अकुशल का मूल है - लोभ, दोष तथा मोह और अकुशल कर्मों को न करना ही कुशल कर्म है। इन कर्मों का सम्यक् ज्ञान होना ही सम्यक्-दृष्टि है। दूसरे शब्दों में दुःख, दुःख के कारण, दुःख का निरोध एवं दुःख-निरोध के मार्ग को ठीक से समझना सम्यक् - दृष्टि है । १३४
-
सम्यक् - संकल्प - आर्यसत्यों का मात्र ज्ञान प्राप्त कर लेना लाभदायक नहीं होता, जब तक कि उसके अनुसार जीवनयापन के लिए साधक दृढ़ संकल्प न हो जाए। जब व्यक्ति को सांसारिक दुःखों एवं उनके कारणों का वास्तविक ज्ञान हो जाता है तब वह उनसे अपने को मुक्त करने का पक्का निश्चय कर लेता है। बौद्ध ग्रंथों में इसी को सम्यक्-संकल्प कहा गया है। अतः प्रत्येक व्यक्ति को यह संकल्प करना चाहिए कि वह
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org