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योग की अवधारणा : जैन एवं बौद्ध
अर्पणा समाधि - जिन पाँच ध्यानांगों का उपचार समाधि में प्रादुर्भाव नहीं हो पाता है उन पाँच ध्यानांगों का अर्पणा समाधि में प्रादुर्भाव हो जाता है और वे सुदृढ़ होते हैं। जिस प्रकार छोटा बालक खड़ा होकर चलने का प्रयत्न करता है, अभ्यासाभाव के कारण वह बार-बार गिर पड़ता है, ठीक उसी प्रकार उपचार समाधि में चित्त कभी आलम्बन को अपना निमित्त बनाता है तो कभी भवांग को, किन्तु अर्पणा समाधि में वितर्क, विचार, प्रीति, सुख एवं एकाग्रता आदि पाँच ध्यानांगों का प्रादुर्भाव हो जाने के कारण चित्त एक ही आलम्बन में स्थिर बना रहता है।१४६
लौकिक समाधि- काम, रूप तथा अरूप भूमियों से सम्बन्धित कुशल चित्त की एकाग्रता को लौकिक समाधि कहते हैं। लौकिक समाधि को शमथयान भी कहते हैं,१४७ जिसकी चर्चा आगे की जायेगी।
लोकोत्तर समाधि- आर्यमार्ग से सम्प्रयुक्त एकाग्रता लोकोत्तर समाधि है। इसे विपश्यना यान भी कहा जाता है।१४८ त्रिविध समाधि
विसुद्धिमग्गो में लक्ष्य की दृष्टि से तीन प्रकार की समाधि का वर्णन मिलता
हीन समाधि - जो साधक समाधि को प्राप्त करने मात्र से सन्तुष्ट हो जाता है उसकी समाधि हीन समाधि कहलाती है। हीन समाधि का लक्ष्य सांसारिक वैभव की उपलब्धि है।
मध्यम समाधि - जो साधक समाधि को प्राप्त कर उसे आगे बढ़ाने का थोड़ाबहुत प्रयास करता है, उसकी समाधि मध्यम समाधि कहलाती है। मध्यम समाधि का लक्ष्य चित्त शान्ति है।
प्रणीत समाधि- साधक द्वारा भली प्रकार से अभ्यास की गयी समाधि प्रणीत समाधि है। प्रणीत समाधि का लक्ष्य दूसरों के हित का सम्पादन होता है।
___ इस प्रकार विसुद्धिमग्गो में एकविध, द्विविध, त्रिविध, चतुर्विध तथा पंचविध समाधियों का वर्णन मिलता है। परन्तु उनका गहराई से अध्ययन करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि समाधि के सभी प्रकार मुख्यत: लौकिक एवं लोकोत्तर समाधि के स्वरूप को ही धारण किये हुए हैं।
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