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जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन
विषय की कामना नहीं करेगा, प्राणियों से द्रोह नहीं करेगा और किसी जीव की हिंसा नहीं करेगा। इसी को मज्झिमनिकाय में नैष्क्रम्य संकल्प, अव्यापाद संकल्प और अविहिंसा संकल्प कहा गया है। १३५
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सम्यक्-वाक् - सत्य, मधुर एवं हितकर वचन बोलनेवाले व्यक्ति की वाणी को सम्यक्-वाक् कहा जाता है। १ ३६ दूसरे शब्दों में वचन से सदाचरणपूर्ण रहना ही सम्यक्-वाक् है। तात्पर्य यह है कि संकल्प मनसा ही नहीं वरन् वचन में भी होना चाहिए। धम्मपद में कहा गया है कि जिन वचनों से दूसरे के हृदय को चोट पहुँचे, जो वचन कटु हो, जिनसे दूसरों की निन्दा हो, जिनसे व्यर्थ का बकवास हो, उन्हें कभी नहीं कहना चाहिए। वैर की शान्ति कटुवचनों से नहीं होती, बल्कि अवैर से होती है । १३७
सम्यक् कर्मान्त - जिस प्रकार वाचिक सदाचरण को सम्यक् - वाक् कहा गया है, उसी प्रकार कायिक सदाचरण को सम्यक् कर्मान्त कहा गया है। कर्म के कारण ही जीव इस लोक में सुख या दुःख भोगता है तथा परलोक में भी स्वर्ग या नरक का गामी बनता है। हिंसा, चोरी, व्यभिचार आदि निन्दनीय कार्यों का सर्वथा व सर्वदा परित्याग करना आवश्यक है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा नशा त्याग इन पाँच अनुष्ठानों का सेवन प्रत्येक व्यक्ति के लिए अपेक्षित है। जो व्यक्ति इन अनुष्ठानों का पालन नहीं करता वह इस लोक में अपना जड़ ही खोदता है । १३८
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सम्यक् - आजीव - शारीरिक एवं वाचिक दुष्चरित्रता को छोड़कर परिशुद्ध कार्यों द्वारा अपनी जीविका चलाना सम्यक् - आजीव कहलाता है। दूसरे शब्दों में उचित वचन एवं उचित कर्मों के साथ न्यायपूर्ण ढंग से जीविकोपार्जन सम्यक् - आजीव है । बुद्ध ने पाँच प्रकार के जीविकोपार्जन के साधन को अयोग्य ठहराया है१३९
१. सत्थ वणिज्जा अर्थात् हथियार का व्यापार।
२. सत्त वणिज्जा अर्थात् प्राणी का व्यापार ।
३. मंस वणिज्जा अर्थात् मांस का व्यापार ।
४. मज्ज वणिज्जा अर्थात् शराब का व्यापार ।
५. विष वणिज्जा अर्थात् विष का व्यापार ।
इसी प्रकार दीघनिकाय के लक्खणसुत्त में भी कुछ व्यापारों को त्याज्य बताया गया है, जो निम्नलिखित हैं।
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