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योग की अवधारणा : जैन एवं बौद्ध
(घ) विवेक, (ङ) कायोत्सर्ग, (च) तपस्या, (छ) छेद, (ज) मूल, (झ) परिहार और
(ञ) श्रद्धान्।
आलोचना - आलोचना का अर्थ होता है 'अपना दोष सरल मन से गुरुजनों के समक्ष प्रकट कर देना।' तात्पर्य है कि व्रत की मर्यादा का उल्लंघन होने पर गुरु पास जाकर दोष स्वीकार करना तथा उसके बदले नया व्रत ग्रहण करना ।
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प्रतिक्रमण - आलोचना के पश्चात् दूसरा प्रायश्चित्त है- प्रतिक्रमण । प्रतिक्रमण का अर्थ होता है- वापस लौटना। साधक का मन शुभयोग से जब अशुभ योग की ओर चला जाता है, तब अशुभयोग से पुनः शुभ योग में वापस लौट आना ही प्रतिक्रमण कहलाता है। तात्पर्य है चारित्रिक पतन से पुन: लौट आना, अपनी गलती को सुधार लेना ही प्रतिक्रमण है।
तदुभय- जिस गलती की शुद्धि के लिए प्रतिक्रमण किया जाता है और आलोचना भी की जाती है, उसे तदुभय प्रायश्चित्त कहते हैं।
विवेक - विवेक का अर्थ होता है- त्याग, छोड़ना । अशुद्ध आहार आदि के आ जाने पर साधक एकांत स्थान में उसका विसर्जन कर देता है। इसे हम ऐसे भी परिभाषित कर सकते हैं कि असदाचरण को असदाचरण के रूप में जान लेना विवेक है।
कायोत्सर्ग - प्रायश्चित्त स्वरूप कायोत्सर्ग करना अथवा असदाचरण का परित्याग करना, कायोत्सर्ग है। मार्ग में चलने से यदि कोई दोष लग गया हो तो उसका प्रायश्चित करने के लिए ध्यान (कायोत्सर्ग) किया जाता है । कायोत्सर्ग करने से ही उस दोष की विशुद्धि हो जाती है।
तपस्या- अपराध या गलती के होने से आत्मशुद्धि के निमित्त उपवास आदि करना तपस्या है।
छेद- मुनि जीवन में दीक्षा पर्याय को दोष के अनुसार दिवस, पक्ष, मास या वर्ष की प्रव्रज्या में कम कर देना छेद प्रायश्चित्त है।
मूल- कभी-कभी मुनि (साधु) इतने गुरुत्तर दोषों का सेवन कर लेते हैं कि आलोचना और तप आदि से भी उनकी शुद्धि नहीं हो सकती । उन दोषों की शुद्धि के लिए श्रमण जीवन या दीक्षा पर्याय को समाप्त कर पुनः दीक्षा लेना अथवा पुनः नये सिरे से श्रमण जीवन का प्रारम्भ करना मूल प्रायश्चित्त है।
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