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जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन
तीव्र हो जाती है कि बाह्य कष्टों का उसके शरीर एवं मन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। साधना की यह स्थिति ही कायक्लेश तप की स्थिति है। आचार्य श्रुतसागरजी ने कायक्लेश के इसी अर्थ को स्वीकार किया है। उनके अनुसार- कायक्लेश के अभ्यास से शारीरिक दुःख को सहने की क्षमता और शारीरिक सुखों के प्रति अनाकांक्षा बढ़ती है।९ ग्रीष्म ऋतु में आतापना लेना, वर्षा ऋतु में तरुमूल में निवास करना, शीत ऋतु में अपावृत स्थान में सोना, नाना प्रकार की प्रतिमाओं को स्वीकार करना, न खुजलाना, शरीर की विभूषा न करना आदि कायक्लेश तप हैं।९०
प्रतिसंलीनता- प्रतिसंलीनता का अर्थ होता है- आत्मा के प्रति लीनता। परभाव में लीन आत्मा को स्वभाव में लीन बनाने की प्रक्रिया ही प्रतिसंलीनता कहलाती है। प्रतिसंलीनता का अर्थ 'गोपन' भी होता है। व्याख्याप्रज्ञप्ति में कहा गया है कि साधक को कछुए की भाँति समस्त इन्द्रियों एवं अंगोंपांगों का गोपन करके रहना चाहिए।९१ शास्त्रों में इसे गुप्ति, संयम, विविक्तशय्यासन भी कहा गया है। प्रतिसंलीनता के चार भेद१२ बताये गये हैं- इन्द्रिय प्रतिसंलीनता, कषाय प्रतिसंलिनता, योग-प्रतिसंलिनता और विविक्तशय्यासन प्रतिसंलीनता।
इस प्रकार बाह्य तप से जहाँ इन्द्रियों की विषय-वासना क्षीण होती है वहीं सुख की भावना भी परित्यक्त होती है। आत्मसंवेग की स्थापना होती है और आत्मिक शक्ति की प्राप्ति होती है। देह, पदार्थ और सुख के प्रति कोई आसक्ति नहीं रहती। आभ्यन्तर तप
__ आभ्यन्तर तप का सम्बन्ध मन से होता है। अन्तरंग शुद्धि और अन्तरंग दोषों का परिहार इसका मुख्य कार्य है। बाह्य तप स्थूल है जिसका वर्णन खाद्य पदार्थों की अपेक्षा से किया गया है, क्योंकि साधक स्वाभिप्राय की अपेक्षा से उनका सेवन करता है। जबकि आभ्यन्तर तप सूक्ष्म है और आत्मपरिणामों की विशुद्धि जिसका मुख्य कार्य है। आभ्यन्तर तप के भी छ: भेद९३ बताये गये हैं- (१) प्रायश्चित्त, (२) विनय, (३) वैयावृत्य, (४) स्वाध्याय, (५) ध्यान और (६) व्युत्सर्ग।
प्रायश्चित्त- प्रायश्चित्त शब्द 'प्रायः' और 'चित्त' के संयोग से बना है। जिसमें प्राय: का अर्थ होता है- अपराध और चित्त का अर्थ होता है- शोधन। अर्थात् जिस क्रिया से अपराध की शुद्धि हो वह प्रायश्चित्त है।४ आचार्य पूज्यपाद के अनुसार-किसी व्रत-नियम के भंग होने पर उसमें लगे दोष का परिहार करना अथवा गुरु के समक्ष चित्तशुद्धि के लिए दोषों की आलोचना करना और उसके लिए प्रायश्चित्त स्वीकार करना, प्रायश्चित तप है।५ इसके दस प्रकार हैं१६. (क) आलोचना, (ख) प्रतिक्रमण, (ग) तदुभय,
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