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योग की अवधारणा : जैन एवं बौद्ध
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ज्ञान के स्तर
___ जैन मान्यतानुसार ज्ञान के पाँच स्तर हैं- मति, श्रुत, अवधि, मन: पर्याय और केवल।५३ किन्तु आचार्य हरिभद्र ने ज्ञान के तीन स्तर बताये हैं - इन्द्रियजन्य ज्ञान, बौद्धिक ज्ञान एवं अप्रमतत्ता अर्थात् आध्यात्मिक ज्ञान।५४ साथ ही उन्होंने इन्द्रियजन्य ज्ञान की अपेक्षा, बौद्धिक ज्ञान तथा बौद्धिक ज्ञान की अपेक्षा आध्यात्मिक ज्ञान का स्तर क्रमश: एक-दूसरे से ऊँचा माना है। यही बात पाश्चात्य दार्शनिक स्पिनोजा के दर्शन में भी देखने को मिलती है। स्पिनोजा ने भी ज्ञान के तीन स्तर स्वीकार किये हैं- इन्द्रियजन्य ज्ञान, तार्किक ज्ञान और अन्तर्बोधात्मक ज्ञान। साथ ही उन्होंने यह भी स्वीकार किया है कि इन्द्रिय ज्ञान की अपेक्षा तार्किक ज्ञान और तार्किक ज्ञान की अपेक्षा अन्तबोंधात्मक ज्ञान श्रेष्ठ एवं प्रमाणिक है।५५
(क) इन्द्रियजन्य ज्ञान- ज्ञान का पहला स्तर है- इन्द्रियजन्य ज्ञान। ज्ञान के इस स्तर पर व्यक्ति को न तो 'स्व' या 'आत्मा' का साक्षात्कार सम्भव है और न नैतिक जीवन ही सम्भव है। क्योंकि ज्ञान का यह स्तर नैतिक जीवन की दृष्टि से इसलिए महत्त्वपूर्ण नहीं है कि इस स्तर पर आत्मा पूरी तरह पराश्रित होती है। वह जो कुछ भी करती है, पराश्रित होकर करती है। कारण कि इन्द्रियाँ बहिर्द्रष्टा होती हैं, इसलिए वे आन्तरिक 'स्व' को नहीं जान पाती हैं।
(ख) बौद्धिक ज्ञान- यह ज्ञान का दूसरा स्तर है जिसे आगम ज्ञान भी कहते हैं। इसमें ज्ञान की आत्म-साक्षात्कार या स्वबोध की अवस्था तो नहीं होती, मात्र परोक्ष रूप में आत्मा इस स्तर पर यह जान पाती है कि वह क्या नहीं है? ज्ञायक आत्मा स्वकेन्द्रित न होकर परकेन्द्रित होती है, लेकिन जब तक पर-केन्द्रित है तब तक सच्ची अप्रमतता का उदय नहीं होता और जब तक अप्रमतता नहीं आती आत्म-साक्षात्कार या परमार्थ का बोध नहीं होता है। आगम ज्ञान भी प्रत्यक्ष रूप से तत्त्व या आत्मा का बोध नहीं कराता, फिर भी जिस प्रकार चित्र मूलवस्तु से भिन्न होते हुए भी उसका संकेत करता है, वैसे ही बौद्धिक ज्ञान (आगम) भी मात्र संकेत करता है।
(ग) आध्यात्मिक ज्ञान- यह ज्ञान का तीसरा स्तर है। इस स्तर पर साधक को आत्मबोध या स्व-बोध होता है तथा ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय की त्रिपुटी मिट जाती है अर्थात् ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय तीनों मिलकर एक हो जाते हैं। ज्ञान की यह निर्विचार, निर्विकल्प, निराश्रित अवस्था ही ज्ञानात्मक साधना की पूर्णता है। आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार आत्मा की यही अवस्था केवलज्ञान या केवलदर्शन है।५६ समयसार के टीकाकार
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