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जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन
(ख) तपस्वियों एवं मुनियों के दुर्बल जर्जर शरीर अथवा मलिन वेशभूषा को देखकर मन में ग्लानि का होना विचिकित्सा है। अतः साधक को इन सब बाह्य रूपों पर ध्यान न देकर अपने साधनात्मक गुणों पर विचार करना चाहिए । आचार्य समन्तभद्र ने कहा है कि शरीर तो स्वभाव से ही अपवित्र है । उसकी पवित्रता तो सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्-चारित्र रूप रत्नत्रय के सदाचरण से ही है । अतएव गुणीजनों द्वारा शरीर से घृणा न कर उसके गुणों से प्रेम करना निर्विचिकित्सा है। २८
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(४) अमूढ़ दृष्टि- सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए अमूढ़ दृष्टियों से बचना चाहिए। मूढ़ता का अर्थ ही होता है - अज्ञान । जब व्यक्ति हेय और उपादेय, योग्य और अयोग्य के मध्य निर्णय करने में सक्षम नहीं हो पाता है, तब वह मूढ़ व्यक्ति कहलाता है, अर्थात् निर्णायक क्षमता का अभाव ही मूढ़ता है। मूढ़ता तीन प्रकार की कही गयी हैं- देवमूढ़ता, लोकमूढ़ता और समयमूढ़ता।
(क) देवमूढ़ता- जब व्यक्ति उपास्य के चयन में अज्ञानता प्रदर्शित करता है, तब वह देवमूढ़ कहलाता है। कहने का अभिप्राय है साधना का आदर्श कौन है ? उपास्य बनने की क्षमता किसमें है? आदि निर्णायक ज्ञान का अभाव देवमूढ़ता कहलाता है।
(ख) लोकमूढ़ता- लोक- प्रवाह और रूढ़ियों का अन्धानुकरण ही लोकमूढ़ता है, यथा-नदियों में स्नान करने से पुण्य मिलता है, पीपल के वृक्ष में जल चढ़ाने से मुक्ति मिलती है, पत्थरों को ढ़ेर कर पूजना और उससे मुक्ति समझना या पर्वत से गिरकर या अग्नि में जलकर प्राण विसर्जित करना आदि लोकमूढ़ताएं है । ३९
(ग) समयमूढ़ता- शास्त्रीय ज्ञान का अभाव समयमूढ़ता कहलाता है। इन तीन अन्धविश्वासों से बचने पर ही साधक में सम्यक्त्व की योग्यता आती है।
(५) उपबृहण - वृद्धि या पोषण करना। अपनें आध्यात्मिक गुणों का विकास करना उपबृहण है।"
(६) स्थिरीकरण - भौतिक प्रलोभनों एवं कठिनाईयों में साधना से च्युत न होना ही स्थिरीकरण है। कभी-कभी ऐसा भी देखा जाता है कि साधक भौतिक प्रलोभनों एवं साधना सम्बन्धी कठिनाईयों के कारण अपनी साधना से च्युत हो जाता है । अत: ऐसे समय में स्वयं को पथ- च्युत होने से बचाना और पथ- च्युत साधकों को धर्म-मार्ग में स्थिर करना स्थिरीकरण है।
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