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योग की अवधारणा : जैन एवं बौद्ध
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अपेक्षाओं (दृष्टिकोणों) एवं प्रमाणों से अवबोध कर उनकी यथार्थता पर श्रद्धा करना विस्तार रुचि सम्यक्त्व है। (८) क्रिया रुचि- प्रारम्भिक रूप में साधक जीवन की विभिन्न क्रियाओं के आचरण में रुचि का होना और उस साधनात्मक अनुष्ठान के फलस्वरूप यथार्थता का बोध होना क्रिया रुचि सम्यक्त्व है। (९) संक्षेप रुचि- जो वस्तुतत्त्व का यथार्थ स्वरूप नहीं जानता है और जो अर्हत् प्रवचन (ज्ञान) में प्रवीण नहीं है, लेकिन जिसने अयथार्थ (मिथ्यादृष्टि) को स्वीकार नहीं किया हैं, जिसमें यथार्थज्ञान की अल्पता है तथापि उसमें मिथ्याधारणा नहीं हैं वह संक्षेप रुचि सम्यक्त्व है। (१०) धर्म रुचितीर्थकर प्रणीत सत् के स्वरूप, आगम साहित्य एवं नैतिक नियमों पर आस्तिक्य भाव या श्रद्धा रखना उन्हें यथार्थ मानना धर्म रुचि सम्यक्त्व है।३४
सम्यग्दर्शन की साधना के आठ आचार
दर्शन-विशुद्धि एवं उसके संवर्द्धन और संरक्षण के लिए आठ आचारों का पालन आवश्यक है। जैन ग्रन्थों में जिन आठ अंगों के वर्णन हैं वे इस प्रकार हैं
(१) निश्शंकता- साधना के लक्ष्य की प्राप्ति हेतु साध्य, साधक और साधना-पथ- इन तीनों पर अविचल श्रद्धा होनी चाहिए, क्योंकि साधक में जिस क्षण भी इन तीनों में से एक के प्रति भी संदेह उत्पन्न हुआ नहीं कि साधक साधना से च्युत हो जाता है। संभवत: यही कारण है कि जैन साधना निश्शंकता को आवश्यक मानती है। निश्शंकता का अर्थ ही होता है- संशयशीलता का अभाव। जिनप्रणीत तत्त्वदर्शन में शंका नहीं करना, उसे यथार्थ एवं सत्य मानना ही निश्शंकता है।३५
(२) निष्कांक्षता- सामान्यतया निष्कांक्षा का अर्थ होता है- निष्कामभाव। आचार्य अमृतचन्द्र ने निष्कांक्षता का अर्थ किया है- “ऐकान्तिक मान्यताओं से दूर रहना।'३६ रत्नकरण्डकश्रावकाचार में कहा गया है कि साधनात्मक जीवन में भौतिक वैभव, ऐहिक तथा पारलौकिक सुख को लक्ष्य बनाना कांक्षा है।३७ साधना का लक्ष्य तभी पूरा होता है,जब साधक भौतिक सुखों व उपलब्धियों से दूर रहता है। इसलिए साधक को साधना के क्षेत्र में प्रविष्ट होने के लिए निष्कांक्षित अथवा निष्कामभाव से युक्त होना आवश्यक है।
(३) निर्विचिकित्सा- इसके दो अर्थ होते हैं- (क) धर्म-क्रिया या साधना का फल मिलेगा या नहीं, मेरी साधना व्यर्थ तो नहीं जायेगी, ऐसी आशंका ही विचिकित्सा है और इस प्रकार की क्रिया के फल के प्रति सन्देह का न होना निर्विचिकित्सा कहलाती है।
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