________________ 12 : जैनधर्म के सम्प्रदाय आचारांगसूत्र', स्थानांगसूत्र, समवायांगसूत्र', व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र, . उत्तराध्ययनसूत्र तथा जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र आदि अनेक प्राचीन ग्रन्थों में मिलते हैं। जैनधर्म के चौबीस तीर्थंकरों के समान ही बौद्धधर्म में चौबीस बुद्धों तथा वैदिक धर्म में चौबीस अवतारों की कल्पना की गई है। ___ वैदिक परम्परा में अवतार का तात्पर्य ईश्वर का भूलोक पर अवतरण है। उसमें ईश्वर को सृष्टि का कर्ता माना गया है। उनके अनुसार ईश्वर ही धर्म संस्थापना एवं दुष्टों के दमन के लिए पृथ्वी पर अवतरित होता है, किन्तु जैन परम्परानुसार तीर्थंकरों का अवतार नहीं होता है, वे अपनी साधना से ही ईश्वरत्व को प्राप्त होते हैं और धर्म को संस्थापना करते हैं / वे सृष्टि के कर्ता भी नहीं हैं। जैन परम्परा में समवायांगसूत्र, तिलोयपण्णत्ति एवं जैन पुराणों में चौबीस तीर्थंकरों के नामोल्लेख के साथ ही इन तीर्थंकरों के पूर्वभवों के माता-पिताओं, जन्म-नगरों, चैत्यवृक्षों, जन्मादि के नक्षत्रों के साथ-साथ इनके जीवनवृत्त के भी उल्लेख मिलते हैं। जैन परम्परानुसार प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव से लेकर अन्तिम तीर्थंकर महावीर तक कुल चौबीस तीर्थकर हुए हैं / यहाँ हम उनका सामान्य परिचय दे रहे हैं। 1. आचारांगसूत्र, 2 / 15 / 739 2. स्थानांगसूत्र, 1 / 249-250, 2 / 438-445, 31535, 5 / 234, 9 / 6211 3. समवायांगसूत्र, 38 / 234, 39 / 237, 40 / 239, 41 / 144, 42 / 247 4. व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र, 9 / 32 / 58-59 5. उत्तराध्ययनसूत्र, 2331, 2315 6. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र, 2 / 37