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[ जैनधर्म-मीमांसा नाम हैं, परन्तु विद्युत् और चपला दोनों के अर्थ में बहुत अन्तर है। विद्युत का अर्थ है चमकनेवाली और चपला का अर्थ है चपलता वाली । फिर भी दोनों एक ही वस्तु के नाम कहे जाते हैं । इसका कारण यह है कि ये दोनों धर्म एक ही वस्तु में पाये जाने हैं। बिजली चपल भी है और चमकती भी है । चारित्र और संयम के विषय में भी यही बात है। सुख के लिये जो प्रयत्न किया जाता है वह एक दृष्टि से चारित्र है, दूसरी दृष्टि से संयम । अच्छी प्रवृत्तियाँ करने से वह चारित्र है, और बुरी प्रवृत्तियों को रोकने से संयम है । सम्यक्चारित्र के लक्षण में दोनों बातों का A उल्लेख होता है । एक तो अशुभ से निवृत्ति, दूसरी शुभ में प्रवृति । इस प्रकार अपेक्षा भेद से एक ही वस्तु के ये दो नाम हैं । अत्र इनमें कुछ भेद नहीं माना जाता।
प्रश्न-यद्यपि जैनशास्त्रों में शुभ प्रवृत्ति को भी चारित्र कहा है; परन्तु जबतक थोड़ी भी प्रवृत्ति है, तबतक चारित्र की अपूर्णता ही मानी है, शुभ प्रवृत्ति को जहाँ चारित्र कहा है, वहाँ भी व्यवहार दृष्टि से कहा है । इससे मालूम होता है कि वह वास्तविक चारित्र नहीं है । वास्तविक चारित्र निवृत्तिरूप ही है ।
उत्तर-जीवन्मुक्त या अर्हन्त अवस्था तक जितना चारित्र है वह प्रवृत्तिरूप है । जैनधर्म कहता है कि तीर्थकर भी
A असुद्र किरियाण चाओ सुहाम किरियासु जो य अपमाओ । तं चारित्त उत्तमगुणजुत्त पालह निरुतं । सिारास रिवाल कहा ३१ । अमहादो विणिवित्ती सुहे पविती य जाण चारित्तं । वदसामीदोत्तरूवं ववहारणया दु जिणभाणयं । दव्वसंगह।